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________________ ७२ ....जैन धर्म में तप, देवता संभ्रमित हो गया, बोला-"महाराज ! कर्मजन्य भाव रोग मिटाने की शक्ति मुझ में नहीं है, मैं तो स्वयं भी उस रोग से घिरा हूं, . मेरा काम सिर्फ शरीर का रोग मिटाना है।" ___ मुनि ने उपेक्षापूर्वक कहा--"शरीर के रोग की क्या चिंता है," और मुख का अमृत (थूक) लेकर शरीर के एक भाग पर लगाया तो शरीर कंचन की तरह चमक उठा । देवता नतमस्तक होकर वापस चला गया। .. तो उन्हें खेलोसहि लब्धि प्राप्त थी, थूक में ही सव रोग मिटाने की शक्ति विद्यमान होते हुए भी उन्होंने कभी अपने शरीर की चिंता नहीं की, अपने लिए अपनी लब्धि का प्रयोग नहीं किया। इससे यह भी पता चलता है कि लब्धिधारी मुनि हर समय लब्धि का उपयोग नहीं करते । आवश्यकता पड़ने पर, संघहित, धर्म प्रभावना या परोपकार की भावना से ही जब अपनी लब्धि का उपयोग करने का संकल्प करते हैं तभी लन्धि अपने प्रभाव में आती है । तो दूसरी लब्धि है (२) विप्पोसहि'-वि डीपधि-'वि' शब्द का अर्थ है शरीर द्वारा त्यक्त मल, और 'प्र' का अर्थ है - प्रश्रवण । पूरे शब्द विप्रुङ का अर्थ है- . मल-मूत्र । अर्थात् जिस लब्धि के प्रभाव से तपस्वी साधक के मल-मूत्र में । सुगन्ध आती हो, और जिसका स्पर्श होने पर रोगी का रोग शांत हो जाता हो-उनका मलमूत्र औषधि की भांति रोगोपशमन में समर्थ हो, ऐसी योग शक्ति का नाम है-विप्पोसहि लब्धि । in . साधारणतः मलमूत्र महान दुर्गन्धि और अपवित्र वस्तु मानी जाती है, । १ (क) विप्पोस हि गहणेण विट्ठस्स गहणं, कीरइ तं चैव विटेओसहि सामत्थज्जतेण विप्प सहि भवति । ___ ~आवश्यकचूणि-१ (ख) यन् माहात्म्यात् मूत्र पुरीसावयवमात्रमपि रोगराशि प्रणाशाय संपद्यते, सुरभिच सा विगुढीपधिः । -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति द्वार २७०
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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