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________________ जैन धर्म में तप: का उतना ही अधिक दान, लाभ, भोग, उपभोग लब्धि के १-१ वीर्य लब्धि के ३, और इन्द्रिय लब्धि के ५ - यों कुल दस लब्धि के २६ अन्तर भेद बताये गये हैं । इन लब्धियों से अभिप्राय है, उन उन विषयक आत्मशक्तियों का विकास ! जैसे ज्ञान लब्धि के कारण आत्मा की ज्ञान शक्तियों का विकास होता है, जिस आत्मा को जितना क्षय, क्षयोपशम होगा उसके ज्ञान विकास होता जायेगा । वैसे हो इन्द्रियलब्धि में आत्मा को पांच इन्द्रिय विषयक क्षयोपशम होता है, और उसकी इन्द्रिय शक्तियों का विकास उसी अनुपात में होता रहता है। हां, ये लब्धियां एकान्त तपोजन्य नहीं मानी गई हैं। इनके विकास में तप मुख्य कारण बन सकता है, किंतु आत्मा की विकासशीलता के कारण सहजरूप में भी कुछ न कुछ उनका दिवास प्रत्येक आत्मा में होता ही है । एकेन्द्रिय आदि में भी इन विकास रहता है । हां, तपः साधना के द्वारा इस विकास एवं प्रवल फलदायी बनाया जा सकता है । लब्धियों का सूक्ष्म को अधिक सक्रिय ७० अठाईस लब्धियां प्रकार की तपोजन्य उपर्युक्त लब्धियों के अतिरिक्त ग्रंथों में अनेक लब्धियों का बड़ा विस्तृत विवेचन किया गया है । २८ प्रकार की तपोजन्य लब्धियों का वर्णन आचार्य ने किया है । वे लब्धियां प्रवचन सारोद्वार में 1 इस प्रकार हैं १ आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लओसही चेव । सव्वोसहि भिन्ने ओहीरिउ विउलमइ लवी ॥ चारण आसी विस केवलिय गणहारिणो य पुव्वधरा । अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा वासुदेवाय ।। खीरमहु सप्पि आसव कोट्ठय बुद्धी पयाणुसारी य । तह बीयबुद्धि तेयग आहारक सोय लेसा य ॥ उव्विदेहलवी अक्खीणमहाणसी पुलाया य । परिणाम तववसेण एमाई हुति लद्धीओ ॥ -प्रवचन सारोद्वार, द्वार २७० गाथा १४६२-- १४६५.
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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