SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा ४१ चाहना चाहिये-बस इतना मात्र जिनशासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है। ४८. दुक्खं खु णिरणकंपा। --निशीथमाष्य ५६३३ किसी के प्रतिनिर्दयता का भाव रखना वस्तुतः दुःखदायी है । ४६. सव्वे अ चक्कजोही, सव्वे अ हया सचक्केहिं । ___ . आवश्यकनियुक्ति ४३ जितने भी चक्रयोधी (अश्वग्रीव, रावण आदि प्रति वासुदेव) हुये हैं, वे अपने ही चक्र से मारे गये हैं । असुभो जो परिणामो सा हिंसा। -विशेषावश्यकभाष्य १७६६ निश्चय-नय की दृष्टि से आत्मा का अशुभ परिणाम ही हिंसा है । ५१. जह मे इट्ठाणि8 सुहासुहे तह सव्वजीवाणं । —आचारांगचूणि १२११६ जैसे मुझे इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख होते हैं, वैसे ही सब जीवों को होते हैं । धम्ममहिंसासमं नत्थि । - भक्तपरिक्षा ६१ अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है । ५३. जीववहाँ अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । -भक्तपरिक्षा ९३ किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है, और अन्य जीव की दया अपनी ही दया है। ५४. सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं । -भगवती आराधना ७६० अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का 'गर्भ-उत्पत्तिस्थान है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy