SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं जो कठोरहृदय दूसरे को पोड़ा से प्रकंपमान देखकर भी प्रकम्पित नहीं होता, वह निरनुकंप अनुकंपारहित) कहलाता है। चूंकि अनुकम्पा का अर्थ ही है - कापते हुये को देखकर कंपित होना। आहच्च हिंसा समितस्स जा तु, सा दव्वतो होति ण भावतो उ । - भावेण हिंसा तु असंजतस्स, जेवावि सत्ते ण सदा वधेति ।। -बृहत्कल्पभाष्य ३९३३ संयमी साधक के द्वारा कभी हिंसा भी हो जाय तो वह द्रव्य हिंसा होती है, भाव हिंसा नहीं। किन्तु जो असंयमी है, वह जीवन में कभी किसी का वध न करने पर भी, भावरूप से सतत हिंसा करता रहता है। ४६. जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य । तत्थ वि बंधविसेसो, महंतर देसितो समए ।। -बृहत्कल्पभाष्य ३९३८ एक अविरत (असंयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजान में। शास्त्र में इन दोनों के हिसाजन्य कर्मबंध में महान् अन्तर बताया है । अर्थात् तीव्र भावों के कारण जानकर हिसा करनेवाले को अपेक्षाकृत कर्मबन्ध तीव्र होता है। जं इच्छसि अप्पणतो, ज च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि एत्तियगं जिणसासणयं ।। -बृहत्कल्पभाष्य ४५८४ जो अपने लिये चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए, जो अपने लिये नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी नहीं ४७.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy