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________________ राग-द्वेष १९७ दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेद्यः सतामपि । -वीतरागस्तोत्र दृष्टिराग अर्थात् अपने पंथ का अंधविश्वास महापापी है और सत्पुरुषों के लिए भी दुस्त्याज्य है। यं दृष्ट्वा वर्धते स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते ।। स विज्ञ यो मनुष्येण, ममैष पूर्वमित्रकः ।। -चन्दचरित्र पृष्ठ ८२ जिसे देखकर स्नेह की वृद्धि एवं क्रोध की शान्ति हो, उसे अपना पूर्वजन्म का मित्र समझना चाहिए। ७. रत्तो बंधदि कम्मं, मुचदि जीवो विरागसपत्तो। -समयसार १५० जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है । और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है। ६. ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि । । समयसार २६५ कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग और द्वेप के अध्यवसाय--संकल्प से होता है। ६. असुहो मोह-पदोसो, सुहो व असुहो हवदि रागो। --प्रवचनसार २।८८ मोह और द्वेप अशुभ ही होते है। गग शुभ और अशुभ दोनों होता है। १०. जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे । बृहत्कल्पभाष्य २५१५ राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र कर्म बन्ध होता है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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