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________________ १८ ९. २. 3. ४. रागो य दोसो वि य कम्मबीय, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंत ॥ राग-द्वेष दुविहे व घे, पेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव । - उत्तराध्ययन ३२/७ कर्म मोह से उत्पन्न राग और द्वेष ये दो कर्म के बीज हैं। होता है । कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है । - स्थानांग २/४ बन्धन के दो प्रकार है - प्रेम का बन्धन, और द्वेष का बन्धन । रागम्स हेउ ममरणुन्नमाहु, दोमस्य हेउ अमरणुन्नमाहु | उत्तराध्ययन ३२/३६ मनोज शब्द आदि राग के हेतु है और अमनोज्ञ द्वेप के हेतु । द्वेष उपगमत्यागात्मकेविकारे । -उत्तराध्ययन टीका ६ उपशमभाव के त्यागरूप आत्मा के विकार को द्वेष कहते हैं । १६६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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