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________________ १८८ १०. ११. १२. १३. १४. सो नाम अणसणतवो, जेण मणो ऽ मंगल न चिंतेइ । जेण न इन्दियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥ जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ मरणसमाधि १३४ वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो, और नित्य प्रति की योग — धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए । तवेण परिसभई । तपस्या से आत्मा पवित्र होती है । तवेणं वोदाणं जणयइ । - - r अपना बल, दृढ़ता, श्रद्धा, आरोग्य तथा आत्मा को तपश्चर्या में लगाना चाहिए । · - उत्तराध्ययन २८ ३५ - उत्तराध्ययन २६ २७ तप से कर्मों का व्यवदान - ( आत्मा से दूर हटना ) होता है । बलं थामं च पेहाए, सद्धामा रोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजु जए | - दशवेकालिक ८।३५ क्षेत्र - काल को देखकर तदेव हि तपः कार्यं, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणिच । - तपोष्टक तप वैसा ही करना चाहिए, जिसमें दुर्ध्यान न हो, योगों की हानि न हो और इन्द्रियाँ क्षीण न हों ! १५. नन्नत्थ निज्जरट्ट्याए तवमहिट्ठेज्जा - दशर्वकालिक ६४ केवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना चाहिए । इहलोक - परलोक व यशःकीर्ति के लिए नहीं ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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