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________________ तपोमार्ग ५. ६. با १८७ साधक करोडोंभवों के संचित कर्मों को तपरया के द्वारा क्षीण कर देता है । ८. जह खलु मडलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहि दव्वेहि । एवं भाववहाणेण, सुभए कम्ममट्ठविहं ॥ - आचारांग नियुक्ति २८२ जिसप्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसीप्रकार आध्यात्मिक तपः साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है । निउणो वि जीव पोओ, तवसंजममारुअविहूणो । - आवश्यकनियुक्ति १६ शास्त्र ज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के बिना संसार सागर को तैर नहीं सकता । जस्स अणेमणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥ - प्रवचनसार ३।२७ परवस्तु की आमक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहार रूप वास्तविक तप है । अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोष रहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चयदृष्टि से अनाहार (तपस्वी ) ही है । जहा तवस्सी घुणते तवेणं, कम्मंतहा जाण तवोऽणुमंता । - बृहत्कल्पभाष्य ४४०१ जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्मों को धुन डालता है, वैसे ही तप का अनुमोदन करने वाला भी । ε. तवस्स मूलं धिती । तप का मूल धृति अर्थात् धैर्य है । - निशीथचूण ८४
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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