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________________ [ १६ ] बाहर से जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है। किन्तु मोह अर्थात् तृष्णारूपी अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता है। (पृष्ठ ७२।१२) समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलब्भई । जो दूसरों के सुख एवं कल्याण का प्रयत्न करता है वह स्वयं भी सुख एवं कल्याण को प्राप्त होता है। (पृष्ठ ८५६) जह कोति अमयरुक्खो विसकटगवल्लिवेढितो संतो। ण चइज्जइ अल्लीतु, एवं सो खिसमाणो उ॥ जिस प्रकार जहरीले काँटोंवाली लता से वेष्टित होने पर अमृत-वृक्ष का भी कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों को तिरस्कार करने और दुर्वचन कहनेवाले विद्वान् को भी कोई नहीं पूछता। (पृष्ठ ८७।५) किच्चा परस्स णिदं, जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज । सो इच्छदि आरोग्गं, परम्मि कडुओसहे पीए । जो दूसरों की निन्दा करके अपने को गुणवान प्रस्थापित करना चाहता है वह व्यक्ति दूमरों को कड़वी औषधि पिलाकर स्वयं रोगरहित होने की इच्छा करता है। (पृष्ठ ६५३४) नो तुच्छए नो य विकत्थइज्जा। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह वाणी से न किसी को तुच्छ बताए और न झूठी प्रशंसा करें। (पृष्ठ ११४१३)
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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