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________________ समभाव १६. समभावात १६३ समभावो सामायियं, तं सकसायस्स णो विसुज्झज्जा। -निशीथचूणि २८४६ समभाव सामायिक है, अतः कषाययुक्त व्यक्ति का सामायिक विशुद्ध नहीं होता। आया णे अज्जो ! सामाइए, आया णे अज्जो! सामाइस्स अट्ठे । -भगवती १९ हे आर्य ! आत्मा ही सामायिक [समत्वभाव] है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ [विशुद्धि] है। सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ । -उत्तराध्ययन २६८ सामायिक की साधना से पापकारी प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता २१. है। किं तिव्वेण तवेणं, कि जवेणं किं चरित्तेणं । समयाइ विण मुक्खो, न हु हूओ कहवि न हु होइ ।। -सामायिकप्रवचन, पृष्ठ ७८ चाहे कोई कितना ही तीव्र तप तपे, जप-जपे अथवा मुनि-वेष धारण कर स्थूल क्रियाकाण्डरूप चारित्र-पाले; परन्तु समत। भावरूप सामायिक के बिना न किसी को मोक्ष हुआ है और न होगा। सेयंबरो वा, आसंबरो वा, बुद्धो वा, तहेव अन्नो वा । समभाव-भाविअप्पा लहइ मोक्खं न संदेहो ।। हरिभद्रसूरि चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बुद्ध या, कोई अन्य हो । समता से भावित आत्मा ही मोक्ष को प्राप्त करती है। २३.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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