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________________ १६२ १५. चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सों समो त्तिणिदिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो ॥ - प्रवचनसार ११७ १६. १७. जैनधर्म की हजार शिक्षाए जिसप्रकार मुझको दुःख प्रिय नहीं है, उसीप्रकार सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है, जो ऐसा जानकर न स्वयं हिंसा करता है न किसी से हिंसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा श्रमण है । १८. चारित्र ही वास्तव में धर्म है, और जो धर्म है वह समत्व है । मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध-परिणमन ही समत्व है । समणो समसुह- दुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति । - प्रवचनसार १।१४ जो सुख-दुःख में समानभाव रखता है, वही वीतराग श्रमण शुद्धउपयोगी कहा गया है । जस्स सामाणिओ अप्पा, सजमे णिअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिअं | - अनुयोगद्वार १.७ जिसकी आत्मा सयम में, नियम मे एवं तप मे सुस्थिर है, उसी की सच्ची सामायिक होती है - ऐसा केवली भगवान ने कहा है । जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिअं | - अनुयोगद्वार १२८ जोस (कीट, पंतगादि) और स्थावर ( पृथ्वी, जल आदि ) सब जीवों के प्रति सम है अर्थात् समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है - ऐसा केवली भगवान ने कहा है ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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