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________________ जनधम का हजार शिकाए १५. जह विसवभुजतो, वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पुग्गलकम्मस्सुदयं, तह भुजदि णेव बज्झए णाणी ।। समयसार १६५ १४८ १६. १७. J १८. जिस प्रकार वैद्य ( औषधरूप में) विष खाता हुआ विष से मरता नही, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा कर्मोदय के कारण सुखदुःख का अनुभव करते हुए भी उनसे बद्ध नहीं होता । सेवंती विण सेवइ असेवमाणो वि सेवगो कोई । - समयसार १६७ ज्ञानी आत्मा (अन्तर में रागादि का अभाव होने के कारण ) विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता । अज्ञानी आत्मा ( अन्तर में रागादि भाव होने के कारण ) विषयों का सेवन नहीं करता हुआ भी सेवन करता है । जीवविमुक्को सवओ, दंसणमुक्को य होइ चल सवओ । सवओ लोयअपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ - भावपाहुड १४३ जीव से रहित शरीर — शव ( मुर्दा - लाश ) है, इसी प्रकार सम्यग् - दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता शव है । शव लोक में अनादरणीय ( त्याज्य) होता है और वह चलशव लोकोत्तर अर्थात् धर्मसाधना के क्षेत्र में अनादरणीय और त्याज्य रहता है । अवच्छलते य दंसणे हाणी । - - बृहत्कल्प भाष्य २७११ धार्मिकजनों मे परम्पर वात्सल्यभाव की कमी होने पर सम्यग्दर्शन की हानि होती है । १६. दंसणभट्ठो भट्ठो दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । - भक्तपरिज्ञा ६६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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