SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन ११. १२. १३/ १४. १४७ सम्यग्दर्शी साधक पापकर्म नहीं करता । अर्थात् वह पापों से सदा बचता रहता है । कुणमाणोऽवि निवित्तिं, परिच्चयतोऽवि सयण धण-भोए । दितोऽवि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिट्ठी न सिभई उ ॥ - आचारागनियुक्ति २२० एक साधक निवृत्ति की साधना करता है, स्वजन, धन और भोगविलास का परित्याग करता है, अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता है, किन्तु यदि वह मिथ्यादृष्टि है, उसकी श्रद्धा विपरीतपथगामी है तो अपनी साधना मं सिद्धि प्राप्त नही कर सकता । दंसणवओ हि सफलाणि, हुति तवनाणचरणाइं । - आचारांग नियुक्ति २२१ सम्यग्रहप्टि के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते है । सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पय लहइ जीवो । जाणतो दु अमुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥ - समयसार १८६ अनुभव करता है, वह शुद्धभाव को जो अपने शुद्धस्वरूप का प्राप्त करता है और जो अशुद्धरूप का अनुभव करता है, वह अशुद्धभाव को प्राप्त होता है । जं कुणदि समदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्त - समयसार १६३ सम्यग्दृष्टि आत्मा जो कुछ भी तप, संयम आदि आचरण करता है, वह उसके कर्मों की निर्जरा के लिए ही होता है ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy