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________________ १३६ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है । सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है, और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। १५. कह सो घिप्पइ अप्पा ? पण्णाए सो उ धिप्पए अप्पा । -समयसार २९६ यह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ? आत्मप्रज्ञा अर्थात् भेद-विज्ञान रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता है। १६. आदा खु मज्झ णाणं, आदा मे दंसणं चरित्तं च । -समयसार २७७ मेरा अपना आत्मा ही ज्ञान (ज्ञानरूप) है, दर्शन है और चारित्र १७. उवओग एव अहमिक्को। -समयसार ३७ मैं (आत्मा) एकमात्र उपयोगमय =ज्ञानमय हूं। १८. अहमिकको खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदा म्वी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तंपि । -समयसार ३८ आत्मद्रप्टा विचार करता है कि- "मै तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वरूप सदाकाल अमूर्त एवं शुद्ध शाश्वत तत्व हूं, परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नही है।" १६. णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करोदि । वेदयइि पुणो तं चेव, जाण अत्ता दु अत्ताणं । . -समयसार ५३ निश्चयदृष्टि से आत्मा अपने को ही करता है, और अपने को ही भोगता है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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