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________________ आत्म-स्वरूप 99. ११. १२. १३. १३५ आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही कर्मों की उदीरणा करता है, स्वयं अपने द्वारा ही उनकी गर्हा - आलोचना करता है, और अपने द्वारा ही कर्मों का संवर आश्रव का निरोध करता है । १४. हस्सिय कुंथुस्स य ममे चेव जीवे । आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुंथुआ- दोनों में आत्मा एक समान है । नत्थि जीवस्म नामो त्ति । आत्मा का कभी नाश नहीं होता । - भगवती ७/८ -उत्तराध्ययन २।२७ नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावाविय होइ निच्चं । - उत्तराध्ययन १४।१६ आत्मा आदि अमूर्ततत्व इन्द्रियग्राह्य नहीं होते । और जो अमूर्त होते हैं वे अविनाशि - नित्य भी होते हैं । अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं ।। - उत्तराध्ययन २०१३६ मेरी (पाप में प्रवृत्त) आत्मा ही वैतरणी नदी और कुटशाल्मली वृक्ष के समान ( कष्टदायी ) है । और मेरी आत्मा ही ( सत्कर्म में प्रवृत्त) कामधेनु और नन्दनवन के समान सुखदायी भी है । अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठय सुप्पट्ठिओ ॥ उत्तराध्ययन २०१३७
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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