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________________ सयम-सूर्य आचार्य सम्भूतविजय ६३ से याचना करके लाया हू।" चोरो ने मुनि की क्लीवता पर अट्टहास किया और दयापान समझकर रत्नकम्बल का अपहरण किए बिना ही उन्हे छोड दिया। सिंह-गुफावासी मुनि अत्यन्त आह्लाद के साथ अवशिष्ट मार्ग को पार कर 'चित्रशाला के निकट पहुचा। उसका मन प्रसन्नता से नाच रहा था। गणिका कोशा के चरणो मे रत्नकम्वल का मूल्यवान् उपहार प्रदान कर वे उमकी कृपादृष्टि पाने को आतुर हो उठे। रत्नकम्बल को देखकर गणिका कोशा की मुद्रा गम्भीर हो गई। अस्थियो से चिपकी चर्म एव फटे-पुराने चिथडो मे लिपटा मुनि का शरीर हड्डियो का ढाचा मान लग रहा था। विवेकसम्पन्ना गणिका कोशा ने रत्नकम्बल से अपने पैरो को पोछा और उसे गदी नाली मे गिरा दिया। मुनि चौके और बोले- "कम्बकठे । अति कठिन श्रम से प्राप्त महामूल्य की इस रत्नकम्वल को आप जैसी समझदार महिला के द्वारा यह उपयोग किया जा रहा है ।" मुनि को आश्चर्यचकित देखकर सयम जीवन की महत्ता उन्हे समझाती हुई गुणवती कोशा ने कहा-"महर्षे । इस साधारण-सी कम्बल के लिए इतनी चिन्ता ? सयम रत्नमयी कम्बल को खोकर आप अपने जीवन मे इससे भी बडी भूल नही कर रहे हैं । ___ गणिका कोशा की सम्यक् वाणी के स्नेहदान से सिह गुफावासी मुनि के मानस मे सवेग-दीप जल गया। सयमी जीवन की स्मृति हो आई। हृदय अनुताप की अनल मे जलने लगा। वे कृतज्ञ स्वरो मे गणिका से बोले "बोधितोऽस्मि त्वया साधु ससारात्साधु रक्षित" -सुनते । तुमने मुझे वोध दिया है। वासनाचक्र की उत्ताल वीचिसमूह मे ऊव-डव करती मेरी जीवन-नौका की तुमने सुरक्षा की है । मै आर्य सम्भूतविजय के पास जाकर आत्मालोचनपूर्वक शुद्ध वनूगा। ___ गणिका कोशा बोली-"ब्रह्मचर्य व्रत मे स्थिर करने के लिए आपको महान् क्लेश प्रदान किया है । यह आपकी आशातना मेरे द्वारा वोध प्रदानार्थ हुई है। मेरे इस व्यवहार के लिए मुझे क्षमा करे और आप श्रेय मार्ग का अनुसरण करे।" सिंह-गुफावासी मुनि गणिका-गृह से विदा हो खिन्नमना आचार्य सम्भूतविजय के पास पहुचे। वे कृत-दोष की आलोचना कर सयम मे पुनः स्थिर हुए एव कठोर तप साधना का आचरण करने लगे। ___ उत्तम पुरुपो के साथ सत्त्वहीन मनुष्यो का प्रतिस्पर्धा-भाव उनके अपने लिए ही हानिकारक होता है। कवि ने ठीक ही कहा है । "अहो | का काकानामहमहमिका हसविहगै, सहामर्प सिंहैरिह हि कतमो जम्बुकतुकाम् ।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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