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________________ ५० जैन धर्म के प्रभावश आचार्य शुक्लपक्ष एव कृष्णपक्ष है, जो जीवन-शाया को काट रहे हैं। मधुमक्षिका की भाति व्याधिया आक्रान्त कर रही हैं। इन्द्रियजन्य मुग मधुविन्दु के ममान क्षणिक आरवाद देने वाले हैं। विद्याधर के ममान मत पुस्प बोध प्रदान कर रहे हैं। उनकी वाणी मे विवेक प्राप्त सुधी जन लक्ष्मी और ललना-लावण्य मै लुब्ध होकर मयममय मुरक्षित स्थान की क्षण-भर के लिए भी उपेक्षा नहीं करते। "प्रभव । पुनोत्पत्ति से पित-वल्याण की भावना भी नाति माव है। पितापुत्र के मम्बन्ध अनेक वार हो चुके है। जन्म-जन्मान्तर मे पिता पुत्र का और पुत्र पिता का स्थान ग्रहण कर लेते है। परिवर्तनशील विश्व मे जनक-जननी, मत-सुता, कान्ताआदि के सम्बन्ध शाश्वत नहीं हैं । इस अनादि-अनन्त मसार मे किसके साथ किस सम्बन्ध नहीं हुआ है । अत स्व-पर की कल्पना ही व्यामोह है। माता, दुहिता, भगिनी, भार्या, पुत्र, पिता, बन्धु और दुर्जन ये मारे के मारे सम्बन्ध भवभवान्तर में परिवर्तित होते रहते है अत इन सम्बन्धो से आत्म-पल्याण का पथ प्रशस्त नहीं होता।" ___महेश्वरदत्त, गोपयुवक, वणिक् आदि के उदाहरण मुनाकर एव कुवेरदत्त, कुवेरदत्ता के दृष्टान्त से एक भव के अठारह सम्बन्धो का विचित्र लेखा-जोखा ममझाकर श्रेष्ठी कुमार ने चोराधिपति के मोहानुवन्ध को शिथिल कर दिया। जम्बू के अमृतोपम उपदेश से प्रभव का हृदय पूर्णत अकृत हो उठा । युग-युग से तन्द्रिल नयन अध्यात्म के अजन से खुल पडे । भीतर का ज्ञानदीप जल गया। वह अपने द्वारा कृत पापो के प्रति अनुताप की अग्नि मे जलने लगा। सोचा, 'हाय । कहा यह श्रेष्ठी कुमार जम्बू जो प्राप्त भोगो को ठुकरा रहा है और कहा मैं जो मास के टुकडे पर कुत्ते की नाई धन पर टूटता हू ।' ___ 'इम महायोगी के नयनो मे मैत्री का अजस्र स्रोत छलक रहा है और मैं पापी ... "महापापी सहस्रो-सहस्रो ललनाओ की माग का सिन्दूर पोछने वाला, रक्षा वाधने को प्रतीक्षारत भगिनियो के भातृ-सुख का अपहरण करने वाला, प्रिय पुत्रो के प्राणो से खेलकर माताओ को बिलखाने वाला, अपने रक्त-रजित हाथो पर अट्टहास करने वाला मैं मैं काल सौकरिक से भी अधिक क्रूर निर्दयी हत्यारा है । सयम और घोर तप की अग्नि मे स्नान किए विना मेरे पाप का विशुद्धीकरण असम्भव है। • 'सर्वथा असम्भव ।' ___ जम्बू की ज्ञानधारा मे प्रभव के हृदय पर युग-युग से जमा कल्मष धुल गया। वह अपने को धिक्कारता हुआ अध्यात्म सागर मे गहराई तक बहता चला गया। जो ऋपभदत्त की धनराशि को लूटने आया था वह स्वय पूर्णत लुट गया। जम्बू के चरणो मे जा गिरा, अपराध की क्षमा मागी और अपने साथियो को मुक्त कर देने के लिए आग्रह-भरा निवेदन उनसे किया, पर वह आश्चर्य के महासागर मे डूब गया। जब वह जम्बू के आदेशानुसार अपने दल के पास पहुचा और उसने
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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