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________________ परिवाट्-पुगव आचार्य प्रभव ४६ मे अध्यात्मविद्या से बढकर कोई विद्या नहीं है, कोई मन नहीं है, कोई शक्ति नही है, कोई बल नही है।" ___ जम्बू की बात सुनकर प्रभव अवाक् रह गया। कुछ क्षणो तक तारिका परिकर परिवृत-शशि सौम्य जम्बू के मुख को अपलक नयन से निहारता रह गया। भीतर से झटका लगा, अरे प्रभव | क्या देख रहे हो? झटके के साथ ही प्रभव का मौन टूटा। वह जम्बू से निवेदन करने लगा, " मेरे परम मित्र । पल्लव-पुष्पो से मुस्कराते मधुमास की भाति यह नव यौवन तुम्हे प्राप्त है । लक्ष्मी तुम्हारे चरणो की सेविका है। सब प्रकार की अनुकूल सामग्री तुम्हे सुलभ है। मुक्तभाव से विषय-सुख भोगने का यह समय है। इन नवविवाहित वालाओ पर अनुकम्पा करो, इनकी इच्छाओ को पूर्ण करो। "जम्बू । तुम जानते हो सन्तानहीन व्यक्ति नरक मे जाता है अत नरक से वाण पाने के लिए पुत्र सन्तति का विस्तार कर पितृऋण से मुक्त बनो । सम्पूर्ण परिवार के लिए आलम्बन बनो। उसके बाद सयम मार्ग मे प्रविष्ट होना शोभास्पद है। " मुदिर की भाति मद स्वर मे जम्बू ने उद्बोध दिया-"प्रभव, विषयभोगो से उत्पन्न सुख अपाय-बहुल है। सर्पपकण तुल्य भोग भी मधुविन्दु के समान प्रचुर दु.ख के दाता होते हैं। महर्षिजनो की दृष्टि मे विपय-सुख मधुविन्दु के समान क्षणिक आनन्ददायी होते है। जैसे धन-सग्रह का इच्छुक कोई व्यक्ति घोर विपिन मे मदोन्मत्त हायी के द्वारा पीछा किए जाने पर ताण पाने का कोई अन्य उपाय न देखकर वृक्ष की शाखा का आलम्बन लिए गम्भीर कूप मे लटक रहा है । उमके पदतल नीचे विकराल काल की भ्रूचाप के समान चार कृष्णकाय सर्प फुफकार रहे हैं । उनके मध्य में विशालकाय अजगर मुह फैलाए पड़ा है। मत्त मतगज वृक्ष के प्रकाण्ड को प्रकम्पित कर रहा है। आलम्बनभूत शाखा को सफेद और काला चूहा कुतर रहा है । वृक्ष की उपरितन शाखा पर मधुमक्खियो का छाता है। मधुमक्खिया देह को काट रही है। छाते से वूद-बूद मधु उसके मुह मे टपक रहा है। मौत उसे स्पष्ट सर पर नाचती हुई दिखाई दे रही है । भाग्य से विद्याधर का विमान ऊपर से निकला । शाखा से लटकते दुखार्त व्यक्ति को देखकर करुणार्द्र हृदय विद्याधर ने आह्वान किया'आओ मानव वशज | मैं तुम्हे नन्दन वन की भाति आनन्ददायक स्थान पर ले चलता हू।' वार-वार विद्याधर के द्वारा इस प्रकार बुलाने पर भी मधु-विन्दु में आसक्त बना वह सद्य चलने को तैयार नहीं होता । एक बिंदु और एक विन्दु और' की प्रतीक्षा मे प्राणो से हाथ धो लेता है। __ "अटवी ससार है। विपयोन्मुख प्राणी रसलुब्ध मानव के समान है। कूप मानवजन्म तथा चार नागराज चतुष्क कपाय हैं। अजगर की भाति नरकादि गतियो के द्वार खुले पड़े हैं। आयुष्य की शाखा पर मनुष्य लटक रहा है। चूहो के रूप में
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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