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________________ ४२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य धर्माराधना जागरूक होकर करने लगी। ___गर्भस्थिति पूर्ण होने पर स्वप्न के अनुसार ही धारिणी को तेजस्वी पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। जम्बू-द्वीपाधिपति देव की विशेष रूप से आराधना जम्बू की गर्भावस्था मे धारिणी ने की थी अत शुभ मुहूर्त एव उल्लासमय वातावरण में बालक का नाम जम्बू रखा गया । कथान्तर के अनुसार माता धारिणी ने जम्बू की गर्भावस्था मे जम्बू वृक्ष को देखा था । अत पुत्र का नाम जम्बू रखा गया। जम्बू अत्यन्त सुकुमार, 'सुविनीत, सरल-स्वभावी बालक था। सोने के चम्मच से दुग्धपान करने वाला और मखमली गद्दो मे पलने वाला शिशु सयमपथ का पथिक बनेगा, यह उस समय कौन सोचता था? सोलह वर्ष की अवस्था मे काम को अभिभूत कर देने वाली आठ रूपवती कन्याओ के साथ जम्बू का सम्बन्ध कर दिया गया। कभी-कभी जीवन मे ऐसे सुनहले क्षण उपस्थित होते हैं जो जीवन को सर्वथा नया मोड दे देते है। एक दिन जम्बू ने मगध सम्राट् श्रेणिक के उद्यान मे आचार्य सुधर्मा का भवसन्तापहारी प्रवचन सुना।' उसके सरल हृदय पर अध्यात्म का गहरा रग चढ गया था। ___ आचार्य सुधर्मा के पास जाकर जम्बू ने प्रार्थना की-"महामहिम मुनीश । मुझे आपकी वाणी से भौतिक सुखो की विनश्वरता का बोध हो गया है। मैं शाश्वत सुख प्रदान करने वाले सयम मार्ग को ग्रहण करना चाहता हूं।" आचार्य सुधर्मा भव-भ्रमण भेदक दृष्टि का बोध कराते हुए बोले-"श्रेष्ठी पुत्र । सयमी जीवन का अमूल्य क्षण महान् दुर्लभ है। धीर पुरुषो के द्वारा यही पथ अनुकरणीय है। तू पल-भर भी प्रमाद मत कर।" ___ जम्बू का मन भी मुनि-जीवन मे प्रविष्ट होने के लिए उतावला हो रहा था पर सद्य दीक्षित हो जाना जम्बू के वश की बात नही थी। इस महापथ पर बढने के लिए अभिभावको की आज्ञा आवश्यक थी। जम्बू के निर्देश पर सारथि ने रथ की धुरी को घर की ओर उन्मुख कर दिया। तीव्र गति से दौडते हुए अश्वचरण जनाकीर्ण नगर द्वार तक आकर रुक गए। मार्ग-प्राप्ति की प्रतीक्षा मे अत्यधिक काल-विक्षेप की सभावना विरक्त जम्बू के लिए असह्य हो गई। स्वामी के सकेत की क्रियान्विति करते हुए सारथी ने रथागो को नगर के द्वितीय प्रवेश-द्वार की ओर घुमा दिया। निर्दिष्ट प्रवेश-द्वार के निकट पहुचकर जम्बू ने देखा-लपलपाती तलवारो, सुतीक्ष्ण भालो, भारी-भरकम गोलको, नरसहारक तोपो, वपु विदारक कटारो, महाशिलाखण्ड की आकृति के भयानक शस्त्रो से द्वार का उपरितन भाग सुसज्जित था। यह सारा उपक्रम परचक्र के भय से सावधान रहने के लिए किया गया था। जम्बू ने सोचा-ये शस्त्र, ये भारी-भरकम लोहमय गोलक मौत का महा निमन्त्रण
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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