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________________ attereभावी जाचायं आनन्दऋषि ३६७ भाषाजी पर प्रशिक्षण पाया। मराठी उनको सहज मातृभाषा थी। उनके कठ मधुर थे । ध्वनि प्रचट पी । सगीतविद्या में अधिक अभिरुचि थी । उत्तरोतर उनके जीवन में विकान होता रहा। वे उपाध्याय, युवाचार्य, प्रधानाचार्य, मत्री, प्रधानमनी आदि विविध उपाधियों से अलकृत होकर स्थानकवासी सम्प्रदाय में सम्मानित स्थान प्राप्त करते हे । चतुविद्य नघ के नम्पू ची० नि० २५२६ (पिं० १६६६) में उनकी ऋषिपरम्परा में आचार्य पद पर नियुक्ति हुई । महाराष्ट्र, गुजरात मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मारवाड, मेवाड आदि अनेक क्षेत्रों में विहरण कर उन्होंने जैन धर्म का प्रचार किया है। स्थानकवासी परम्परा का बृहत् श्रमण सम्मेलन मारडी मे वी० नि० २४७६ (वि०म० २००९) में हुआ था। आनन्दमपि जी की इन अवसर पर श्रमण मध मे उपाचाय पद पर विभूपिन रिया गया था । वर्तमान में ये श्रण के प्रथमाचार्य जान्गाराम जी के उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त है । उनके जीवन को विशेषता उनका निगव व्यवहार है । श्रनपत्य को कुशलतापूर्वक वहन करते हुए गौम्यम्यभावी आचार्य लानन्दऋषि जी जैन धर्म को प्रभावना में रत है। 4
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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