SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यों के काल का सक्षिप्त सिंहावलोकन २१ जैनाचार्यों का यह साहित्य सुप्राचीन भारत की सभ्यता एव सस्कृति की झाकी प्रस्तुत करने वाला निर्मल दर्पण है । जैन साहित्य और सस्कृत भापा यह युग सस्कृत भाषा के आरोहण का काल था। जैनेतर विद्वानो द्वारा सस्कृत भाषा में विशाल ग्रन्थराशि का निर्माण हो रहा था। यह विद्वानो की भाषा समझी जाने लगी थी। धर्म-प्रभावना के कार्य में इस भापा का आलम्बन अनिवार्य हो गया था। सस्कृत भाषा-प्रधान इस युग मे सस्कृतविज्ञ सक्षम जैनाचार्यों का आविर्भाव हुआ । महान् टीकाकार आचार्य शीलाक, सोलह वर्ष की अवस्था में आचार्य पद पर आरूढ होने वाले नवागी टीकाकार आचार्य अभयदेव, समर्थ टीकाकार आचार्य मलयगिरि, सरस टीकाकार आचार्य नेमिचन्द्र आदि सस्कृत भाषा मे आगम के व्याख्या ग्रन्थो को प्रस्तुत करने वाले दिग्गज विद्वान थे। उन्होने विशाल टीका ग्रन्थो का निर्माण कर सस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। ___ मर्वार्थ मिद्धि के कर्ता आचार्य पूज्यपाद, भक्तामर स्तोत्र के कर्ता आचार्य मानतुग, १४४४ ग्रन्थो के रचयिता आचार्य हरिभद्र, धवला तथा जयधवला के कर्ता आचार्य जिनसेन और विजयसेन, उत्तर पुराण के रचयिता आचार्य गुणभद्र, अप्टसहवी और तत्त्वार्थवार्तिक आदि नौ ग्रन्थो के रचयिता आचार्य विद्यानन्द, कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के व्याख्याकार आचार्य अमृतचन्द्र, रूपक ग्रन्थ-उपमितिभवप्रपञ्चकथा के रचनाकार आचार्य सिद्धपि, अमितगति श्रावकाचार के रचयिता आचार्य अमितगति, गोम्मटसार जैसी अमूल्य कृति के रचनाकार आचार्य नेमिचन्द्र, यशस्तिलक तथा नीतिवाक्यामृत ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य सोमदेव, कविमूर्धन्य आचार्य रामचन्द्र, कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र आदि विद्वान् जैनाचार्य इस युग के अनुपम रत्न थे। इन आचार्यों की प्रखर प्रतिभा और समर्थ लेखनी ने सस्कृत साहित्य को ज्ञानालोकमय बना दिया था। जैन साहित्य और लोकभापा जैनाचार्य लोकरुचि के भी ज्ञाता थे। उन्होने एक ओर सस्कृत भाषा मे उच्चतम साहित्य का निर्माण कर उसे विद्वद्भोग्य बनाया दूसरी ओर लोकभापा को 'भी प्रश्रय दिया। वे जनभाषा मे बोले और जनभाषा मे साहित्य की रचना कर विभिन्न देशो की भाषा को समृद्ध किया। इससे उनके प्रति लोकप्रीति बढी और वह धर्म-प्रभावना मे अधिक सहायक सिद्ध हुई। आज पूर्वाचार्यों के प्रयत्न परि
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy