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________________ / ३६ जनप्रिय आचार्य जिनदत्त खरतरगच्छ के परम प्रभावक सुविहितमान श्राचार्य विनदत जिनवल्लभ मूरि के शिष्य थे । वर्तमान में वे बड़े दादा नशक नाम से प्रख्गति प्राप्त है। उनका जन्म पी० नि० १६०२ (वि० ११३२) जातीय श्रेष्ठीवन में हुआ। उनके पिता का नाम वाच्छिरा और माता का नाम बाहुड था । उपाध्याय धर्मघोष मुनि के पान उन्होंने दीक्षा हो । उनका दीक्षा का नाम गोमचन्द्र हुआ। १६११ (०२१४१ ) मे नोमचन्द्र की स्फुरित मनीषा पर भ्रमण का जश्नवाहित था। मात वर्ष तक पाटण में उन्होंने जैन दर्शन गम्भीर अध्ययन किया और दिग्गज विद्वानो के साथ शान्त्रार्थ कर वे विजयी बने । हरिसिंहाय उनकी प्रतिमा पर उत्पन्न मुग्ध थे। उन्होंने मान विद्धातो की वाचना के साथ अपनी अध्ययन सम्बन्धी गामत्री मी विनदत्त वृद्धि को प्रसन्नतापूर्वक दे दी थी । चित्तोड मे वी० नि० १६३९ (वि० ११६९) वंशाग्र कृष्ण पष्ठी शनिवार की देवान ने उन्हें जाचार्य पद पर नियुक्त किया और जिनदत्त के नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई । पाटण में उन्हें युग-प्रधान पद मिला । आचार्य जिनदत्त के युग मे चैत्यवान की धाग राज्याश्रय को प्राप्त कर बड़े वेग से बह रही थी । सुविहित विधिमार्ग पर चलने वाले जैनाचार्यों के लिए यह कडी कमीटी का युग था । जिनदत्त सूरि की नई मूल-जूझने धर्म-विस्तार के लिए नये आयाम यो । सत्य के प्रतिपादन में उनकी नीति बहुत विशुद्ध थी। किसी भी प्रलोभन में आकर उन्होंने उत्सूत्र की प्ररूपणा नहीं की । उनके शासनकाल मे जैनीकरण का महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ । जिनदत्त मूरि ने अपने मगीरथ प्रयत्न से एक लाग छत्तीस हजार जैन बनाकर जैनशासन की प्रभावना में नया कीर्तिमान स्थापित किया । अमत् तरीको से सख्या बढाने का व्यामोह उनमे बिल्कुल नही था । वे स्पष्ट
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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