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________________ २८. शिव-सुख-आलय आचार्य शान्ति वादिवताल गान्त्याचार्य प्रशस्त टीकाकार थे। वे राधनपुर के पार्श्ववर्ती उन्नातायु गाव के निवासी धनदेव के पुत्र थे। उनकी माता का नाम धनश्री था। शान्त्याचार्य के गृहस्थ जीवन का नाम भीम था। चान्द्रकुल-यारापद्र गच्छ के नाचार्य विजयसिंह तरि के पास उनकी दीक्षा हुई। मिथ्यादृष्टि व्यक्तियों के लिए उदग्र प्रतिभावलसम्पन्न भीम, यथार्थ में ही भीम थे । उनका दीक्षा नाम शान्ति हुआ। आचार्य सवदेव और जमयदेव ते उन्होंने विविध प्रकार का प्रशिक्षण पाया। आचार्य विजयसिंह द्वारा भाचार्यपद पर अलकृत होकर उनका सारा उत्तराधिकार सफलतापूर्वक शान्त्याचार्य ने सभाला। प्रकाड पाडित्य का परिचय देकर पाटण के महाराज भीम की सभा में कवीन्द्र और वादी चकरी की उन्होने उपाधिया प्राप्त की। राजा भोज की सभा में ८४ विद्वानों के साथ शास्त्रार्य कर विजय की वरमाला पहनी। वादीजनो मे वेताल की तरह प्रमाणित होने से राजा भोज ने वादिवेताल का पद लेकर उनको सम्मानित किया। शान्त्याचार्य के बत्तीस विद्वान् शिष्य न्याय विपय के पाठी थे। उन्हे शान्त्याचार्य स्वय प्रमाणशास्त्र-सम्बन्धी प्रशिक्षण देते थे। आचार्य जी की अध्यापन पद्धति ने आचार्य मुनिचन्द्र को प्रभावित किया। वे भी उनकी मडली में प्रविष्ट होकर प्रमाणशास्त्र के विद्यार्थी वन गए थे। ये मुनिचन्द्र प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार के रचनाकार आचार्य वादिदेव के गुरुये। जैन विद्वान् धनपाल की तिलक-मजरी पर उन्होने समुचित समीक्षा की और उस पर टिप्पणी भी लिखी। टीका साहित्य में उनकी 'शिष्यहिता' टीका बहुत प्रसिद्ध है। प्राकृत कयानको की बहुलता के आधार से इसे 'पाइय टीका' भी कहते है। इसमे पाठान्तरो और अर्थान्तरो की प्रचुरता है। कथानक बहुत सक्षिप्त शैली में लिखे गए हैं। मूलपाठ और नियुक्ति दोनो की व्याख्या करती हुई यह टीका १८००० श्लोक परिमाण है। इसमे ५५७ गाथाए नियुक्ति की हैं । स्थान-स्थान पर विशेपावश्यक भाष्य की गाथाओ का तथा दशवकालिक सूत्र की गाथाओ का प्रयोग भी हुआ है। कही-कही भत हरि के श्लोक भी उद्धृत हैं।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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