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________________ शास्त्रार्थ-निपुण सूराचार्य २७६ सूराचार्य प्रशिक्षण प्रदान करने की विद्या मे सुदक्ष थे। उन्होने अपने पास अधीत शिष्यो को वाद-कुशल बनाया। आचार्य द्रोणसूरि के स्वर्गवास के बाद सूराचार्य ने गण का दायित्व सम्भाला। जैन प्रवचन की उन्नति की। जीवन के सध्या काल मे अपने पद पर योग्य शिष्य को नियुक्त कर पतीस दिन के अनशन के वाद वे स्वर्ग को प्राप्त हुए। राजा भोज और धनपाल कवि के समकालीन होने के कारण सूराचार्य का समय वी० नि० की १५वी (वि. ११वी) शताब्दी सभव है। आधार-स्थल १ गुरव प्राहुरुत्तानमत्त वालेषु का कथा । किमागच्छसि लग्नस्त्व कृतभोजसभाजय ॥६१॥ (प्रभा० चरित, पनाक १५८) २ श्रुत्वेत्याह स चादेश प्रमाण प्रमुसमित । जादास्ये विकृती सर्वा कृत्वादेशममु प्रभो ॥६२।। (प्रभा० चरित, पनाक १५४) ३ सूरि प्राहैकमेकाट्ट कुरु किं बहुभि कृतं । एकत्न सर्व लन्येत लोको भ्रमति नो यथा ॥१३५॥ (प्रभा० चरित, पनाक १५९) ४ राजाऽवदत् पृथग्वस्त्वथिनामेकनमीलने । महावाघा ततश्च पयग हदावली मया ।।१३६।। (प्रभा० चरित, पनाक १५९) ५ दयार्थी जनमास्थेयाद् रसार्थी कौलदर्शनम् । वेदाश्च व्यवहारार्थी मुक्त्यर्थी च निरजनम् ॥१३६।। (प्रमा० चरित, पनाक १५६) ६ राजामात्योपरोधेन व्रताचारव्यतिक्रमे । प्रायश्चित्तविनिश्चित्य सूरिराख्नुवान् गजम् ॥२॥ (प्रभा० चरित, पनाक १५५) ७ योग्य सूरिपदे न्यस्य मारमन निवेश्य च । प्रायोपवेशन पचविंशद्दिनमित दो ॥२५॥ (प्रमा० चरित, पनाक १६०)
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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