SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्र २४१ जिनभट्ट का नाम निर्देप किया है। सभवत जिनभट्ट या जिनभद्र के निर्देशवर्ती आचार्य जिनदत्त थे। मुनि आचार महिता से सबंधित नाना प्रकार की शिक्षाए उन्हे गुरु से प्राप्त हुई। अपने गण के परिचय-प्रसग मे गुरु ने हरिभद्र मुनि को बताया-"आगम प्रवीणा साध्वी समूह मे मुकुटमणि श्री को प्राप्त महत्तरा उपाधि से अलकृत साध्वी याकिनी मेरी गुरुभगिनी है।" हरिभद्र ने भी याकिनी महत्तरा के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट करते हुए कहा"मैं शास्त्रविशारद होकर भी मूर्ख था। सुकत के सयोग से निजकुल देवता की तन्ह धर्ममाता याकिनी के द्वारा मैं वोध को प्राप्त हुआ है। ___ आचार्य हरिभद्र वैदिक दर्शन के पारगामी विद्वान् पहले से ही थे। जैन श्रमण दीक्षा लेने के बाद वे जैन दर्शन के विशिष्ट विज्ञाता बने। उनकी सर्वतोमुखी योग्यता के आधार पर गुरु ने उन्हें आनायं पद पर नियुक्त किया। आचार्य हरिभद्र जव आहार करते तब लल्लिग शख बजाया करता था। शख की ध्वनि के साथ कुछ याचक आते, भोजन करते और जाते समय आचार्य हरिभद्र को नमस्कार किया करते थे। हरिभद्र भाशीर्वाद में उन्हें कहते-"भवविरह मे प्रयत्नशील बनो।" इस मावना की प्रबलता के कारण उनका नाम भवविरह मूरि भी हो गया था। आचार्य हरिभद्र के पास हस और परमहम दीक्षित हुए। वे दोनो आचार्य हरिभद्र के मगिनीपुत्र थे। हरिभद्र ने उन्ह प्रमाणशास्त्र का विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया। दोनो शिप्यो ने एक बार बौद्ध प्रमाणशास्त्र के अध्ययनार्थ इच्छा प्रकट की। उन्होंने कहा-"यह अध्ययन बौद्ध विद्यापीठ मे जाकर ही किया जा सकता है।" आचार्य हरिभद्र ज्योतिपशास्त्र के विद्वान् थे। उनके निर्मल ज्ञान मे अनिष्ट घटना का आभास हुआ। उन्होंने इस कार्य के लिए उन्हे रोका पर वे न रुके। गुरु के आदेश की अवहेलना कर दोनो वहा से प्रस्थित हुए। वेश बदलकर बौद्ध पीठ मे प्रविष्ट हुए। विद्यार्थी दल मे युग्म सहोदर प्रतिभासम्पन्न छान ये। बौद्ध अध्यापको के पास वे वौद्ध प्रमाणशास्त्र पढते व अपने स्थान पर आकर जैन दर्शन से वौद्ध दर्शन के सूत्री की तुलना करते और स्वपक्ष, विपक्ष के समर्थन तथा निरसन मे तर्क-वितर्क पत्र पर लिखते थे। इस रहस्य का उद्घाटन दैवीशक्ति द्वारा हुआ। चौद्ध अधिष्ठात्री 'तारादेवी' ने वायु के वेग से पन को उडाकर उसे लेखशाला मे डाल दिया। पत्र के शीर्ष स्थान पर 'नमो जिनाय' लिखा हुआ था। वौद्ध छात्रो ने उसे देखा और उपाध्याय के पास ले गए । उपाध्याय ने समझ लिया यहा अवश्य छद्म वेश मे कोई जैन छान पढ रहा है। परीक्षा के लिए वाटिका के द्वार पर जिनप्रतिमा की स्थापना कर सबको गुरुजनो ने आदेश दिया-वे जिन-प्रतिमा पर चरण रखकर आगे बढे। बौद्ध जानते थे कोई भी जैन जिन-प्रतिमा पर पैर नही
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy