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________________ २४० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य गुरुचरणो के निकट पहुचकर विद्वान् हरिभद्र को सात्त्विक प्रसन्नता की अनुभूति हई। उन्होने झुककर नमन किया और अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखी। आचार्य जिनदत्त ने कहा-"पूर्वापर सदर्भ सहित सिद्धान्तो के पद्यो को समझ लेने के लिए मुनि-जीवन का स्वीकरण आवश्यक है।" वैज्ञानिक भूमिका पर धर्म का विवेचन करते हुए उन्होने बताया-"भव-विरह ही धर्म का परम फल है।" आचार्य जिनदत्त सूरि के दर्शन से विद्वान् हरिभद्र के सासारिक वासना का सस्करण क्षीण हो गया। भव-विरह की वात उनके मानस को बैध गयी। विद्वान् हरिभद्र सच्चे अर्थ मे जिज्ञासु थे। वे दीक्षा लेने के लिए भी प्रस्तुत हुए । ब्राह्मण समाज को बुलाकर उन्होने जैन-दीक्षा की भावना प्रकट की। अपने सम्प्रदाय के प्रति दृढ आस्थाशील ब्राह्मणो द्वारा राजपुरोहित हरिभद्र के इन विचारो का विरोध होना स्वाभाविक था। वैसा हुआ, किसी ने भी उनको समर्थन नही दिया। विद्वान् हरिभद्र वोले पक्षपात परित्यज्य मध्यस्थी भूययेव च । विचार्य युक्तियुक्त यद् ग्राह्य त्याज्यमयुक्तिमत् ॥३०८।। (पुरातन प्रवन्ध-सग्रह) -पक्षपात को छोडकर मध्यस्थ भावभूमि पर विचार करे। युक्तियुक्त वचन ग्राह्य है और अयुक्तिपूर्ण वचन त्याज्य है। न वीतरागादपरोऽस्ति देवो न ब्रह्मचर्यादपरचरित्नम् । नाभीत्तिदानात्परमस्ति दान चारित्रिणो नापरमस्ति पात्रम् ॥ (पुरातन प्रवन्ध-सग्रह ३१०) -वीतराग से परे कोई देव नही है। ब्रह्मचर्य से श्रेष्ठ आचार नही है। अभयदान से श्रेष्ठ कोई दान नही है। चारित्र गुणमडित पुरुप से उन्नत कोई पान नही है। विवेक बुद्धि से अपने समाज को अनुकूल बनाकर तथा उनसे सहमति प्राप्त कर विद्वान् हरिभद्र जैन मुनि बने। वे राजपुरोहित से धर्मपुरोहित वन गए और साध्वी याकिनी महत्तरा जी को उन्होने धर्मजननी के रूप मे अपने हृदय मे स्थान दिया। आज भी उनकी प्रसिद्धि याकिनी सुन के नाम से है। प्रभावक चरित और प्रवन्धकोश के अनुसार विद्वान् हरिभद्र के दीक्षागुरु जिनभट्ट थे। प्रबन्ध-सग्रह मे आचार्य जिनदत्त का उल्लेख है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी कृतियो मे गुरु का नाम जिनदत्त बताया है । आवश्यक वृत्ति मे वे लिखते है-"समाप्ता चेय शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका, कृति सिताम्बराचार्य जिनभट्ट निगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी महत्तरा सुनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ।" प्रस्तुत टीका मे आचार्य हरिभद्र ने गुरु जिनदत्त के नामोल्लेख के साथ श्वेताम्बर परपरा विद्याधर गच्छ एव आचार्य
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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