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________________ २३६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य चूणि मे चूणिकार की सूक्ष्म प्रज्ञा के दर्शन होते है। पुण्य विजय जी द्वारा सपादित नन्दी प्रस्तावना मे नन्दी, अनुयोगद्वार एव निशीथ इन तीनो चूर्णियो का कर्तृक जिनदास महत्तर का स्वीकार किया है। इस शोध से चूणि साहित्य की रचना का अधिकाश श्रेय भी जिनदास महत्तर को प्रदान करने की सुप्राचीन धारण भ्रामक सिद्ध हुई है। समग्र आगम चूणि साहित्य की रचना में कई विद्वानो का योग माना है। दशवकालिक चूणि के कर्ता श्री अगस्त्य सिंहगणी एव जीतकल्प वृहत चूणि के प्रणेता श्री सिद्धसेनगणी है। आचाराग चूणि एव सूत्रकृताग चूणि अज्ञात कर्तृक है। उन्होने आचाराग चूणि के प्रति श्री जिनभद्रगणी मे पूर्व होने की सम्भावना प्रकट की है । आवश्यक चूर्णि को भी जिनदास महत्तरकी रचना मानने मे सन्देह व्यक्त किया गया है। विधिनिपेध एव अपवाद मार्गों की सूचना प्रस्तुत करने वाले व्यवहार, दशाश्रुत स्कन्ध एव वृहत्कल्प इन तीन महत्त्वपूर्ण छेदसूत्रो की चूर्णिया भी अज्ञात कर्तृक मानी गयी है। ___ अनेक विद्वानो का इस विषय मे अनुदान होने पर भी जिनदास महत्तर की चूर्णिकार के रूप मे प्रसिद्धि उनके साहित्य की मौलिकता है। निशीथ चूर्णि निर्विवाद रूप से श्री जिनदास महत्तर की कृति है। जैन श्रमण आचार से सम्बन्धित विधि-निषेधो की विस्तार से परिचर्चा और उत्सर्ग मार्ग तथा अपवाद मार्ग की पर्याप्त सूचना इस कृति मे प्राप्त होती है। निशीथ चूणि के अन्त मे चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने अपने नाम का परिचय रहस्यमयी शैली में प्रस्तुत किया है । वह श्लोक इस प्रकार है ति चउ पण अट्ठमवग्गे ति तिग अक्खरा व तेसि । पढमततिए ही तिदुसरजुएहि णाम कय जस्स ॥ अकारादि स्वरप्रधान वर्णमाला को एक वर्ग मान लेने पर अ वर्ग से श वर्ग तक आठ वर्ग वनते है। इस क्रम से तृतीय च वर्ग का तृतीय अक्षर 'ज', चतुर्थ ट वर्ग का पचम अक्षर 'ण', पचम त वर्ग का तृतीय अक्षर 'द' अष्टम वर्ग का तृतीय अक्षर 'स', तथा प्रथम अ वर्ग की तृतीय माना इकार, द्वितीय मात्रा आकार को क्रमश 'ज' और 'द' के साथ जोड देने पर जो नाम बनता है उसी नाम को धारण करने वाले व्यक्ति ने इस चूणि का निर्माण किया है। यह नाम बनता है जिनदास। अपने नाम के परिचय मे इस प्रकार की शैली साहित्य क्षेत्र मे बहुत कम प्रयुक्त नन्दी चूणि श्री जिनदास महत्तर की मौलिक कृति है। यह शक संवत् ५६८ एव वि०स० ७३३ मे पूर्ण हुई थी। शक सम्वत् का उल्लेख स्वय जिनदास महत्तर ने प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त मे किया है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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