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________________ परमागमपारीण आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण २२५ की ३२२ गाथा, दशवकालिक भाप्य की ६३ गाथा, पिंड नियुक्ति की ४६ गाथा एव उत्तराध्ययन भाप्य की मात्र ४५ गाथा है । इन लघुकाय भाप्यो को कठान भी किया जा सकता है। आचार्य जिनभद्रगणी ने दो भाप्य लिखे है-जीतकल्प भाप्य एव विशेपावश्यक भाप्य। जीतकल्म भाप्य में ज्ञानपचका, प्रायश्चित आदि कई आवश्यक विषयो का वर्णन है। बावण्यक नून पर तीन भाप्य हैं । उनमे विशेपावश्यक भाष्य-आवस्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन सामायिक मूत्र पर है। इसमे ३६०३ गाथाए हैं। विशालकाय भाप्य साहित्य में आचार्य जिनभद्रगणी के विशेषावग्यक भाप्य का स्थान महत्त्वपूर्ण है । यह जैन आगमो के बहुविध विषयो का प्रतिनिधि है। ___ नय, निक्षेप, प्रमाण, स्याद्वाद आदि दार्शनिक विपयो पर गूढ परिचर्चा, कर्मशास्त्र का मूक्ष्म प्रतिपादन, ज्ञान पचक की भेद-प्रभेदो के साथ व्याख्या, शब्दगास्त्र का विस्तार ने विवेचन तथा औदारिक आदि सात प्रकार की वर्गणाओ के सम्बन्ध मे नए तथ्य इस ग्रन्थ मे पढे जा सकते है। जैन दर्शन के साथ दर्शनेतर मिद्धान्तो का तुलनात्मक म्प भी इम कृति में प्रस्तुत है। गोधविद्यार्थियों के लिए यह कृति विशेप सहायक है। ___ आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणआगम वाणी पर पूर्णत समर्पित थे। उनकी समग्र रचनाए तथा रचना को प्रत्येक पक्ति आगम आम्नाय की परिपोपक थी। उन्होने दर्शन पर आगम को नही, पर आगम के आधार पर दशन को प्रतिष्ठित किया। उनकी चिन्तन विधा अत्यन्त मौलिक थी। उन्होने प्रत्येक प्रमेय के माय अनेकान्त और नय को घटित किया। परोक्ष की परिधि में परिगणित इन्द्रिय प्रत्यक्ष को मव्यवहार प्रत्यक्ष मज्ञा देने की पहल भी उन्होने की। ये समग्र विन्दु भाग्य माहित्य मे अधिकाशत उपलब्ध है। वृहत् मग्रहणी, वृहत् क्षेत्र समास, विशेपणवती आदि कुल ६ ग्रन्थो की रचना आचार्य जिनभद्रगणी ने की थी। उनके सात ग्रन्य पय प्राकृत मे है। अनुयोग चूणि गद्य प्राकृत में है। वृहत् मग्रहणी मे चार गतिक जीवो की स्थिति आदि का वर्णन है । वृहत् क्षेत्र समास जैन सम्मत भौगोलिक ग्रथ है । द्वीपो और ममुद्रो का विवेचन इसमे हुआ है। इन दोनो ग्रथो पर आचार्य मलयगिरि ने टीकाए लिखी । वृहत् मग्रहणी के टीकाकार आचार्य मलयगिरि के अतिरिक शालिभद्र जिनवल्लभ आदि कई विद्वान् थे । ___ अनुयोग चूणि का जिनदास महत्तर एव टीकाकार हरिभद्र सूरि ने अपनी कृतियो मे पूरा उपयोग किया है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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