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________________ सस्कृत-सरोज-सरोवर आचार्य समन्तभद्र २१३ राजन्नस्या जलधिवलया मेखलायामिलायामाज्ञासिद्ध किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोह ॥३॥ -स्वयम्भू स्तोत्र स्वामी समन्तभद्र आचार्य, कवि, वादिराट्, पडित, दैवज्ञ, (ज्योतिषज्ञ), वैद्य, मान्त्रिक, तान्त्रिक और आशासिद्ध थे। सरस्वती की अपार कृपा उन पर थी। ___ वे मूल प्रवर्तको मे से थे और बौद्धाचार्य नागार्जुन के समकालीन थे। पूरे दक्षिण में उनके शास्त्रार्थों का प्रभाव था। उनका मूल निवासस्थान सम्भवत काची था, जो वर्तमान मे काजीवर कहलाता है। उन्होने स्वयं अपने को काञ्ची का नग्नाटक कहा है। आचार्य समन्तभद्र प्रबल कष्टसहिष्णु भी थे। मुनि जीवन मे उन्हे एक वार भस्मक नामक व्याधि हो गयी थी। इस व्याधि के कारण वे जो कुछ खाते वह अग्नि मे पतित अन्नकण की तरह भस्म हो जाता। भूख असह्य हो गयी। कोई उपचार न देखकर उन्होने अनशन की सोची। गुरु से आदेश मागा पर अनशन की स्वीकृति उन्हे न मिल सकी। समन्तभद्र को विवश होकर काची के शिवालय का आश्रय लेना पड़ा और पुजारी बनकर रहना पड़ा। वहा देव-प्रतिमा को अर्पित लगभग चालीस सेर का चढावा उन्हे खाने को मिल जाता था । कुछ दिनो के वाद मधुर एव पर्याप्त भोजन से उनकी व्याधि शान्त होने लगी। नैवेद्य वचने लगा। एक दिन यह भेद शिवकोटि के सामने खुला। राजा आश्चर्यचकित रह गया। इसे किसी भयकर घटना का सकेत समझ शिवालय को राजा की सेना ने घेर लिया। उस समय समन्तभद्र नैवेद्य खाने मे व्यस्त ये। जब उन्होने सेना के द्वारा मन्दिर को घेरे जाने की बात जानी, इस भयकर उपसर्ग के शान्त न होने तक अनशन कर लिया और जिनेन्द्र देव की स्तुति करने लगे।चन्द्रप्रभ का स्मरण करते समय चन्द्रविम्ब प्रकट हुआ। शिवकोटि राजा पर इस घटना का आश्चर्यकारी प्रभाव हुआ और उन्होने समन्तभद्र का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। समन्तभद्र भी पुन सयम मे स्थिर होकर आचार्य पद पर आरुढ हुए एव अपनी प्राञ्जल प्रतिभा से प्रचुर सस्कृत साहित्य का सर्जनकर जैन शासन की महनीय श्रीवृद्धि की । उनकी रचनाए प्राजल सस्कृत मे है। आप्तमीमासा ___ आचार्य समन्तभद्र की यह प्रथम रचना है । इसका दूसरा नाम देवागम स्तोत्र भी है। इस ग्रन्थ का प्रारम्म देवागम शब्द से हुआ है । आचार्य अकलक भट्ट ने इस पर अष्टशती नामक भाष्य लिखा है। आचार्य विद्यानन्द ने अष्ट सहस्री नामक विशाल टीका लिखी है । इस टीका को आप्त मीमासालकृति एव देवागमालकृति सज्ञा से भी पहचाना गया है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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