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________________ ४ सस्कृत-सरोज-सरोवर आचार्य समन्तभद्र श्वेताम्वर परम्परा मे जो आदरास्पद स्थान आचार्य सिद्धसेन का है वही स्थान दिगम्वर परम्परा मे समन्तभद्र स्वामी का है। __ आचार्य समन्तभद्र दक्षिण के राजकुमार थे। वे तमिलनाडु उरगपुर नरेश के पुत्र थे। उनका नाम शान्तिवर्मा था। 'आप्तमीमासा' कृति मे उनके जीवन का परिचायक उल्लेख उपलब्ध होता है।' मुनि-जीवन मे प्रवेश पाकर समन्तभद्र स्वामी गणियो के भी गणि कहलाए और महान् गौरवाह आचार्य श्रमण सघ के वने। कवित्व, गमकत्व, वादित्व, वाग्मित्व-ये चार गुण उनके व्यक्तित्व के अलकार ये। अपने इन्ही विरल गुणो के कारण वे काव्य-लोक के उच्चतम अधिकारी,आगममर्मज्ञ, सतत शास्त्रार्थ प्रवृत्त और वाक्पटु बनकर विश्व मे चमके । सस्कृत,प्राकृत, कन्नड, तमिल आदि कई भाषाओ पर उनका अधिकार था। भारतीय विद्या का कोई भी विपय सभवत उनकी प्रतिभा से अस्पृष्ट नही रहा। . वे स्याद्वाद के सजीवक आचार्य थे। उनका जीवन-दर्शन स्याद्वाद का दर्शन या। उनकी अभिव्यक्ति स्याद्वाद की अभिव्यक्ति थी। वे जब भी बोलते, अपने प्रत्येक वचन को स्याद्वाद की तुला से तोलते थे। उनके उत्तरवर्ती विद्वान् आचार्य ने उनको स्याद्वाद विद्यापति, स्याद्वाद शरीर, स्याद्वाद विद्यागुरु तथा स्याद्वाद अग्रमी का सम्बोधन देकर अपना मस्तक झुकाया। वे वाद-कुशल आचार्य ही नही वाद-रसिक आचार्य भी थे। भारत के सुप्रसिद्ध ज्ञान केन्द्रो मे पहुचकर भेरी ताडनपूर्वक वाद के लिए विद्वानो को उन्होने आह्वान किया था। पाटलिपुत्र, वाराणसी, मालव, पजाब, काचीपुर (काजीवरम्) उनके प्रमुख वादक्षेत्र थे। उनकी वादप्रीति सम्यक् वोध की हेतु थी। ___ आचार्य समन्तभद्र का पूरा परिचय उन्ही के द्वारा रचित एक श्लोक मे प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है आचार्योह कविरहमह वादिराट् पण्डितोह । दैवज्ञोह भिपगमह मान्त्रिकस्तान्त्रिकोह ।।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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