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________________ २०४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य एव नय का आधार लेकर बत्तीस अनुष्टुप श्लोको मे न्याय जैसे गम्भीर विषय को प्रस्तुत कर देना उनकी प्रतिभा का चमत्कार है। 'सन्मति तर्क' उनकी प्राकृत रचना है । उस समय आगम समर्थक जैन विद्वान् प्राकृत भाषा को पोपण दे रहे थे । सम्भवत इन विद्वानो की अभिरुचि का सम्मान करने के लिए 'सन्मति तर्क' का निर्माण सिद्धसेन ने प्राकृत भाषा मे किया है । नय का विशद विवेचन, तर्क के आधार पर पाच ज्ञान की परिचर्चा, प्रतिपक्षी दर्शन का भी सापेक्ष भूमिका पर समर्थन तथा सम्यक्त्व स्पर्शी अनेकान्त का युक्ति पुरस्सर प्रतिपादन इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय है। प्रमाणविपयक सामग्री को प्रस्तुत करने वाला यह सर्वप्रथम जैन ग्रन्थ है। ___ आचार्य सिद्धसेन का द्वानिशिका साहित्य उनके गम्भीर ज्ञान का सूचक है। इस साहित्य की रचना में उन्होने अनुष्टुप्, उपजाति, वसन्ततिलका, पृथ्वी, शिखरिणी आदि विभिन्न छन्दो का उपयोग किया है। __ आचार्य सिद्धसेन मे आस्था एव तर्क का अपूर्व समन्वय था। वे एक ओर मौलिक चिन्तन के धनी, स्वतन्त्र विचारक एव नवीन युग के प्रवर्तक थे, दूसरी ओर वे महान् स्तुतिकार थे। उनके द्वारा निर्मित द्वात्रिशिकाओ मे इक्कीस द्वानिशिकाए आज उपलब्ध है। उपलब्ध द्वानिशिकाओ मे प्रथम पाच द्वानिशिकाए स्तुतिमय है। इन स्तुतियो मे भगवान महावीर के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा के दर्शन होते है। अवशिष्ट द्वानिशिकाओ मे विविध विषयो का वर्णन मिलता है। जैनेतर दर्शनो को समझने के लिए १३वी, १४वी, १५वी, १८वी द्वात्रिंशिका उपयोगी है। इनमे क्रमश साख्य, वैशेषिक, वौद्ध एव नियतिवाद की चर्चा है। जैन तत्त्व दर्शन को समझने के लिए १९वी द्वात्रिंशिका विपुल सामग्री प्रदान करती है। आत्मस्वरूप एव मुक्ति मार्ग का बोध २०वी द्वात्रिंशिका में है। प्रथम पाच द्वानिशिकाओ की भाति २१वी द्वात्रिंशिका भी स्तुतिमय है। ___ 'न्यायावतार' एवं 'सन्मति तर्क' ग्रन्थ की रचना द्वानिशिका साहित्य के वाद की है। भाषाशास्त्र-विशेषज्ञ विद्वान् इन दोनो ग्रन्थो का कर्तृक सिद्धसेन का स्वीकार करने मे सन्देहास्पद भी है। ___आचार्य सिद्धसेन की कृतिया उनकी स्पष्टवादिता, निर्भीकता और चिन्तन की उन्मुक्तता का स्पष्ट प्रतिविम्ब है। पूर्वाग्रह का भाव आचार्य सिद्धसेन मे कभी 'पनप नही सका। उन्होने पुरातन रूढ धारणाओ पर क्रान्ति का घोष करते हुए 'कहा पुरातनर्या नियता व्यवस्थितिस्तथैव सा कि परिचित्य सेत्स्यति । तथेति वक्तु मृतरूढगौरवादहन्नजात प्रथयन्तु विद्विप । पुरातन पुरुषो की असिद्ध व्यवस्था का समर्थन करने के लिए मैं नही जन्मा हू। एक ओर आचार्य सिद्धमेन ने आगम मे विखरे अनेकान्त सुमनो को माला का
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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