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________________ अर्हन्नीति-उन्नायक आचार्य उमास्वाति १८१ तत्त्वार्थ सूत्रो के व्याख्याकारो मे उमास्वाति ही सर्वप्रथम थे । 'तत्त्वार्थाधिगम' उनकी स्वोपज्ञ रचना है । यह मान्यता श्वेताम्बर विद्वानो की है | दिगम्बर विद्वान् इसे स्वोपज्ञ रचना नही मानते । स्वाति गद्यकार ही नही पद्यकार भी थे। उनकी भाष्यकारिकाए सुललित द्य मे सन्निहित है | 1 कारिका पद्य के अनुसार वाचक मुख्य शिवश्री के शिप्य व एकादशाग के धारक घोपनन्दि क्षमाश्रमण उमास्वाति के दीक्षा गुरु थे और महावाचक मुडपात के शिष्य 'मूल' उनके विद्यागुरु थे । उनके तत्त्वार्थ भाष्य से बाल, वृद्ध, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान आदि श्रमणो के लिए उपकरण-संग्रह का संकेत प्राप्त होता है । आचार्य उमास्वाति पाच सौ ग्रन्थो के रचनाकार थे - यह उल्लेख प्रशमरति प्रकरण की हारिभद्रया वृत्ति के उपोद्घात मे है, पर वर्तमान मे इन ग्रन्थो की पूर्णत सूची भी उपलब्ध नही है । आचार्य उमास्वाति का साहित्य मौलिक है एव गम्भीर सामग्री से परिपूर्ण है । अर्हन्नीति- उन्नयन कार्य उनके साहित्य से सवल हुआ । 'तत्त्वार्थ सूत्र' उनकी अनुपम कृति है । दु खार्त एव आगमो के गूढ ज्ञान को प्राप्त करने मे असमर्थ लोगो पर अनुकम्पा कर आचार्य उमास्वाति ने गुरु-परम्परा मे प्राप्त आर्हत् उपदेश को 'तत्त्वार्थाधिगम' ग्रन्थ मे निहित किया । आचार्य उमास्वाति के शब्दो मे यह ग्रन्थ अव्यावाध सुख को प्राप्त करने वाला है । इस ग्रन्थ की रचना कुसुमपुर मे हुई थी । सिद्धान्तप्रधान एव दर्शनप्रधान इस ग्रन्थ ने उत्तरवर्ती आचार्यों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया है । खेताम्वर एव दिगम्बर दोनो ही परम्पराओ मे इस ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस ग्रन्थ की व्याख्या पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि, आचार्य अकलक देव ने राजवार्तिक टीका और आचार्य विद्यानन्द ने सभाष्य तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक टीका लिखी है । स्थान-स्थान पर 'आप्त परीक्षा' आदि ग्रन्थो की रचना मे आचार्य विद्यानद के 'तत्त्वार्थ सूत' के सूत्रो का प्रामाणिक आधार भी दिया है । आचार्य उमास्वाति के साथ कही कही 'पूर्वविद्' विरोपण भी आता है। यह विशेषण उनके पूर्वज्ञान का सूचक माना गया है । दिगम्बर परम्परा मे उनको श्रुतकेवली के तुल्य घोषित किया है । प्रो० हीरालाल जैन ने श्रवणबेलगोल के शिलालेखो के आधार पर आचार्य उमास्वाति को आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा मे माना है । 'कल्पसूत्र स्थविरावली' के अनुसार आचार्य उमास्वाति उच्चनागरी शाखा के थे । उच्चनागरी शाखा का सम्वन्ध आचार्य सुस्थित की परम्परा के आचार्य माठर गोत्रीय शान्ति श्रेणिक से था। इस आधार पर पडित सुखलाल जी ने उमास्वाति को श्वेताम्बर परम्परा का
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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