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________________ १२६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य स्थिति को जाना। वे यक्षायतन मे गए एव यक्ष के कानो मे उपानह डालकर सो गए। पुजारी इस व्यवहार से प्रकुपित हुमा । यह वात राजा के कानो तक पहुचाई। राजकीय पुरुषो द्वारा आचार्य खपुट की पिटाई होने लगी, पर सब विस्मयाभिभूत हो गए। यष्टि-प्रहार आचार्य खपुट की पीठ पर हो रहा था, करुण क्रन्दन अन्तपुर से सुनाई दे रहा था। राजा समझ गया यह चमत्कार उस विद्यासिद्ध योगी का है। वह खपुटाचार्य के पास पहुचा एव अपने कठोर आदेश के लिए क्षमा मागी। इस विद्या बल से प्रभावित होकर राजा उनका परम भक्त वना' एव यक्ष-प्रतिमा भी उन्हे द्वार तक पहुचाने आयी । खपुटाचार्य का नाम मुख पर गूज उठा । यक्ष का उपद्रव पूर्णत शान्त हुआ। मार्य खपुट जैन सघ को आश्वस्त करने हेतु उपद्रव शान्त हो जाने के बाद भी कुछ दिन तक वही रुके। इधर भगुपुर मे विचित्र घटना घट गयी। मुनि द्वय भृगुपुर से आर्य खपुट के पास पहुंचे। उन्होने निवेदन किया-"आर्य | आपके द्वारा निषेध करने पर भी आपकी कपर्दिका को भुवन शिष्य ने खोला। उससे उसे माकृष्टि महाविद्या प्राप्त हो गई है । वह इस विद्या का दुरुपयोग कर रहा है। तत्प्रभावाद् वराहार मानीय स्वदतेतराम्। प्रतिदिन गृहस्थो के घर से आकृष्टि महाविद्या के द्वारा सरस-सरस आहार को खीचकर उसने उसका उपभोग करना प्रारम्भ कर दिया था। रस-लोलुप भुवन को स्थविरो ने बार-बार रोका। वह उसे सहन नहीं कर सका । स्थिति विकट हो गयी। जैन सघ से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर विद्या के गर्व से गुर्राता हुआ भुवन बौद्धो के साथ जा मिला। वहा इसी विद्या के आधार पर आकाश-मार्ग से पात्रो को वौद्ध उपासको के घर भेजता है और भोजन से परिपूर्ण होने के बाद उन्हें वापस खीच लेता है। इस चमत्कारिक विद्या के प्रभाव से अनेक जैन बौद्ध होने लगे। सारी स्थिति आपके ध्यान मे ला दी है। 'यदुचित तत्कुरुध्वम्'-अब जैसा उचित हो वैसा करे।" आर्य खपुट मुनियो द्वारा समग्र घटना-प्रसग को सुनकर वहा से चले और भगुपुर पहुंचे। प्रच्छन्न रूप से कही स्थित होकर आर्य खपुट ने विद्यावल के द्वारा आकाश मार्ग से समागत शिष्य भुवन के भोजनपूरित पानो को शिला प्रहार से खण्ड-खण्ड कर दिया। भग्न पात्रो से मोदक आदि नाना प्रकार का स्वादिष्ट भोजन लोगो के मस्तक पर गिरने लगा।" शिष्य भुवन ने समझ लिया, उसके प्रभाव को प्रतिहत करने वाले भाचार्य खपुट आ चुके है। वह नाना प्रकार के कल्पित भय से घबरा कर वहा से भाग गया । आर्य खपुट का मुख-मुख से जय-जयकार होने लगा। पाटलिपुत्र मे जैन संघ के सामने भयकर राजकीय सकट उपस्थित हुआ। वहा के राजा दाहड का जैन श्रमणो को आदेश मिला-वे ब्राह्मण वर्ग को नमन कर
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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