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________________ १०८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य इस पद्य मे काश्यपगोत्रीय वलिस्सह को वहुल के समान अवरथा प्राप्त बताया गया है। हिमवन्त स्थविरावलि के अनुसार सम्राट् खारवेल के द्वारा आयोजित कुमारगिरि पर्वत पर महाश्रमण सम्मेलन मे आचार्य वलिस्सह उपस्थित थे। इसी प्रसग पर उन्होने विद्यानुप्रवाद पूर्व से अगविद्या जैसे शास्त्र की रचना की थी। कल्पसूत्र स्थविरावली मे उत्तर वलिस्सह गण की चार शाखाओ का उल्लेख इस प्रकार हैतजहा-कोसबिया, सोतित्तिया, (सोतिमूत्तिया) कोडवाणी, चदनागरी॥२०॥ (१) कोस बिका, (२) सूक्तिमती, (३) कोडवाणी,(४)चदनागरी। विश्वबन्धु आचार्य वलिस्सह आर्य महागिरि के उत्तराधिकारी थे। आर्य महागिरि का -स्वर्गवास वी०नि० २४५ (वि०पू० २२५) में हुआ था। इस आधार पर आचार्य बलिस्सह का काल वी० नि० २४५ (वि० पू० २२५) मानना उपयुक्त है । प्राधार-स्थल १ महागिरि सुहत्यि गुणसुदर च सामज्ज खदिलायरिज । रेवइमित्त धम्म च भद्दगुत्त सिरिगुत्त ॥११॥ (दुषमाकाल श्रीश्रमणसघस्तोत्रम्) २ थेरस्स ण अज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ट थेरा अन्तेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्या, तजहा-थेरे उत्तरे (१), थेरे बलिस्सहे (२), थेरे धणड्डे (३), थेरे सिरिड्ड (४), थेरे कोडिन्ने (५), थेरे नागे (६), थेरे नागमित्ते (७), थेरे छलूए रोहगुत्ते कोसियगुत्ते ण ८॥ (कल्पसून स्थविरावली) ३ थेरेहिन्तो ण उत्तर बलिस्सहेहिन्तो तत्य ण उत्तर बलिस्सहे नाम गणे निग्गये । (कल्पसूत्र स्थविरावली)
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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