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________________ ८८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य खिन्नमना होकर वह वोली-"आर्य | दुर्भाग्य से घर की सपत्ति नप्टप्राय हो गयी है । अर्थहीन व्यक्ति ससार मे तृण के समान लघु एव मूल्यहीन होता है। शरीर नही पूजा जाता अर्थ पूजा जाता है। 'विदेशो व्यवसायिनाम्' व्यवसाय के लिए विदेश ही आश्रय है । अर्थाभाव मे अत्यन्त दयनीय स्थिति को प्राप्त पतिदेव धनोपार्जन हेतु देशान्तर गए हैं।" श्रेष्ठी धनदेव के आगन मे स्तम्भ के नीचे विपुलनिधि निहित थी। धनदेव सर्वथा इससे अनजान था। आर्य स्थूलभद्र ने ज्ञानवल से इसे जाना एव मित्र की पत्नी से बात करते समय उनकी दृष्टि उसी स्तम्भ पर केन्द्रित हो गयी थी। हाथ के मकेत भी स्तम्भ की ओर थे। आर्य स्थूलभद्र ने कहा-"वहिन, ससार का स्वरूप विचित्र है । एक दिन धनदेव महान व्यापारी था । आज स्थिति सर्वथा बदल चुकी है। पर चिन्ता मत करना । भौतिक सुख-दुख चिरस्थायी नहीं होते।" आर्य स्थूलभद्र के उपदेश-निर्झर के शीतल कणो से मित्रपत्नी के आधि-व्याधिताप तप्त अधीर मानस को अनुपम शान्ति प्राप्त हुई। कुछ दिनो के बाद श्रेष्ठी धनदेव पूर्व जैसी ही दयनीय स्थिति मे घर आया। उसकी पत्नी ने आर्य स्थूलभद्र के पदार्पण से लेकर सारी घटना कह सुनाई। उसने यह भी बताया कि उपदेश देते समय आर्य स्थूलभद्र स्तम्भ के अभिमुख बैठे थे । उनका हस्ताभिनय भी इस स्तम्भ की ओर था। बुद्धिमान श्रेष्ठी धनदेव ने सोचा-महान् पुरुषो की हर प्रवृत्ति रहस्यमयी होती है। उसने स्तम्भ के नीचे से धरा को खोदा । विपुल सम्पत्ति की प्राप्ति उसे हुई । आर्य स्थूलभद्र इस ममय तक पाटलिपुत्र पधार चुके थे। उनके अमित उपकार से उपकृत धनदेव श्रेष्ठी दर्शनार्थ वहा पहुचा और पावन, पवित्र, अमृतोपम, महान् कल्याणकारी, शिवपथगामी उपदेश सुनकर व्रतधारी श्रावक बना। मित्र को अध्यात्म पथ का पथिक बनाकर आर्य स्थूलभद्र ने जगत् के सामने अनुपम मैत्री का आदर्श उपस्थित किया। आर्य स्थूलभद्र के जीवन से अनेक प्रेरक घटना-प्रसग जुडे है। एक बार मगधाधिपति नन्द ने रय-सचालन के कला-कौशल से प्रसन्न होकर सारथि को अनिंद्य सुन्दरी, कला की स्वामिनी, विविध गुणसम्पन्ना मगध गणिका कोशा को उपहार के रूप में घोपित कर दी थी। ___कोशा चतुर महिला थी। वह आर्य स्थूलभद्र से श्राविका व्रत ग्रहण कर चुकी थी। अपने प्रण पर दृढ थी। उसकी वाक्पटुता एव व्यवहार-कौशल ने सयम में अस्थिर कामाभिभूत सिंह-गुफावासी मुनि को भी पुन सयम मे स्थिर कर दिया था। अपने व्रत मे सुस्थिर रहकर उत्तीर्ण होने का यह दूसरा अवसर कोशा के सामने प्रस्तुत हुआ था। कोशा ने राजाज्ञा का चातुर्य से पालन किया। वह रथिक के सामने सीधी-सादी वेश-भूपा मे उपस्थित हुई। उसकी आखो में न कोई
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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