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________________ तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र ८७ चिन्तन में लीन थे । कोशा ने स्थूलभद्र की ओर झाका । उनकी शान्त-सौम्य मुद्रा को देखते ही कोशा के वामना का ज्वर उतर गया। दैहिक आकर्षण मिट गया। मानसिक द्वन्द्व क्षीण हो गया। स्थूलभद्र ने नयन खोले । उपदेश दिया। कोशा सुदृढ श्राविका बन गयी। पावस वीता । स्थूलभद्र कमोटी पर खरे उतरे । नवनीत आग पर चढकर भी नहीं पिघला । काजल को कोठरी मे जाकर भी वे वेदाग रहे । वे आचार्य सतविजय के पाम लौट भाए। आचार्य सात-आठ पर स्थूलभद्र के सामने चलकर आये । 'दुष्कर-महादुष्कर क्रिया के साधक' का सम्बोधन देकर फामविजेता स्थूलभद्र का सम्मान किया। ___ आचार्य सम्भूतविजय के बाद उग युग का महत्त्वपूर्ण कार्य आगम-वाचना का था। द्वादश-वर्षीय दुष्काल के कारण श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न हो रही थी। उमे सकलित करने के लिए पाटलिपुत्र में महाश्रमण-मम्मेलन हुआ। इस आयोजन के व्यवस्थापक स्थूलभद्र स्वय थे । ग्यारह भगो का सम्यक् सकलन हुआ। दृष्टिवाद को अनुपलब्धि ने नवको चिंतित कर दिया। आचार्य स्थूलभद्र मे अमाधारण क्षमता थी। ज्ञानमागर की इम महान् क्षतिपूर्ति के लिए मघ के निर्णयानुमार वे नेपाल मे भगवाहु पाम विद्यार्थी बनकर रहे एव उनो समग्र चतुर्दश पूर्व की ज्ञानराशि को अत्यन्त धैर्य के साथ ग्रहण कर उन्होने श्रुत सागर मे टूटती दृष्टिवाद की मुविशाल धारा को सरक्षण दिया। अर्थ-वाचना दम पूर्व तक ही वे उनसे ले पाए थे । अन्तिम चार पूर्व की उन्हें पाठ-वाचना मिली । वीर निर्वाण के १६० वर्ष के आमपाम सम्पन्न यह मर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण वाचना थी। भद्रबाहु के बाद वी०नि० १७० (वि०पू० ३००) मे स्थूलभद्र ने आचार्य पद का नेतृत्व मम्भाला था। उनमे विविध म्पो मे जैन शामन की प्रभावना हुई थी। ___ महाकरुणा के स्रोत, पतितोद्धारक, परोपकार-परायण आर्य स्यूलभद्र का पदार्पण एक वार श्रावस्ती नगरी में हुआ। इमी नगरी में उनका बालगखा घनिष्ठ मित्र धनदेव श्रेष्ठी मपरिवार निवास करता था। जन-जन हितपी आर्य स्थूलभद्र का प्रवचन सुनने विशाल मख्या में मानव समुदाय उपस्थित था। इस भीड मे बचपन के माथी श्रेष्ठी धनदेव की मौम्य आकृति कही दष्टिगोचर नही हो रही थी। उसकी अन्यत्र गमन की अथवा रुग्ण हो जाने की परिकल्पना आर्य स्थूलभद्र के मस्तिष्क मे उमरी, उन्होने सोचा-सकट की स्थिति मे श्रेष्ठी धनदेव अवश्य अनुग्रहणीय है। अध्यात्म उद्बोध देने के निमित्त से प्रेरित होकर प्रवचनोपगत आर्य स्थूलभद्र विशाल जनसघ के साथ श्रेष्ठी धनदेव के घर पहुचे । महान आचार्य के पदार्पण से धनदेव की पत्नी परम प्रसन्न हुई। उसने भूतल पर मम्तक टिकाकर वदन किया। महती कृपा कर अध्यात्मानुकपी आर्य स्थूलभद्र मित्र के घर पर बैठे एव मित्र की पत्नी से धनदेव के विषय मे पूछा।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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