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________________ ५८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ का उल्लेख वि० स०१०८७ (सन् १०३०) में श्रीनन्दो के शिष्य श्रीचन्द्र ने किया है। श्रीनन्दी का समय श्रीचन्द्र से २० वर्ष पूर्व माना जाय तो सन् १०१० में बलात्कार गण का उल्लेख हुआ है। ऐसी स्थिति में उक्त पद्मनन्दि को बलात्कारगण का सस्थापक नही माना जा सकता। क्योंकि यह घटना चार सौ-पांच सौ वर्ष पूर्व की है। बलात्कार गण में अनेक विद्वान भट्टारक हुए हैं और उनके पट्ट भी अनेक स्थानों पर रहे हैं। इस कारण बलात्कार गण का विस्तार अधिक रहा है। इस गण के भट्टारकों ने जैनधर्म की सेवा भी की है। महाराष्ट्र में मलखेड का पीठ बलात्कारगण का केन्द्र था। उसकी दो शाखाएं कारंजा और लातूर में स्थापित हुई थी। सूरत में भी बलात्कार गण की गद्दी थी। ग्वालियर और सोनागिरि माथुर गच्छ और बलात्कारगण के केन्द्र थे और हिसार माथुर गच्छ का प्रधान पीठ था। बलात्कारगण के साथ सरस्वती गच्छ का उल्लेख चौदहवी सदी से मिलता है। यह लेख शक स० १२७७ मन्मथ संवत्सर का है। इसमें कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, मूलसघ के अमरकोति प्राचार्य के शिष्य, माघनन्दि व्रती के शिप्य भोगराज द्वारा शांतिनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है। जैन शिलालेख स० भा० ४ पृ० २८८ पर क्रम न० ४०३, ४०४ और पृ० ३०५ में क्र. ४३४ न० के लेखों में कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा में राजा हरिहर के समय इरुग दण्ड नायक द्वारा जिन मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है। मूल सघ बलात्कारगण के भट्टारक धर्मभूषण के उपदेश में इम्मडि बुक्क मंत्री द्वारा कुन्दन बोलु नगर में कून्थनाथ का चैत्यालय बनवाये जाने का उल्लेख है। और मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के वर्धमान भट्रारक की प्रार्थना पर राजा देवराय द्वारा वरांग नामक ग्राम नेमिनाथ मंदिर को दिये जाने का उल्लेख है। क्राणूरगण-इस गण के तीन उपभेदों का उल्लेख मिलता है-तिन्त्रिणी गच्छ, मेपपाषाण गच्छ और पूस्तक गच्छ। इम गण का पहला उल्लेख दसवीं शताब्दी के लेख (जैन शि० म० भा०४ क्रमाक नं०५६) में मिलता है। तथा १४वी शताब्दी के अन्त तक के उल्लेख उपलब्ध होते है । मूल संघ के देशिय गण और क्राणर गण की अपनी वसदियां (मन्दिर) होती थी। दडिग में प्राप्त एक लेख में लिखा है कि होयसल मेनापति मरियाने रत ने दडिगणकेरे स्थान में पाच वसदियां बनवायी थीं उनमें चार वसदियां देशियगण के लिये और एक क्राणुर गण के लिए। १४वी शताब्दी के बाद काणरगण का प्रभाव बलात्कारगण के प्रभावक भट्टारकों के समय प्रभावहीन हो गया। ___कल्लूर गुड्ड के लेख' में क्राणूरगण के प्राचार्या की वंशावली निम्न प्रकार दी है-दक्षिण देशवासी, गङ्गजानों के कुल क ममुद्धारक श्री मुलसघ के नाथ सिहन्दि नाम के मुनि थे। उसके पश्चात् अहंद्वल्याचार्य, बेटददाम नन्दि भट्रारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेघचन्द्र विद्यदेव, गुणचन्द्र, पण्डित देव । इनके बाद शब्दब्रह्म. गणनन्दिदेव हए। इनके बाद महान नाकिक एवं वादी प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव हए, जो मूलसघ कोण्डकुन्डान्वय क्राणग्गण तथा मेषपाषाण गच्छ के थे। उनके शिप्य माघनन्दि सिद्धान्तदेव, और उनके शिष्य प्रभाचन्द्र हए। इनके सधर्मा अनन्त वीर्य मुनि, मुनिचन्द्र मुनि, उनके शिष्य श्रुतकीति, उनके शिप्य कनकनन्दि विद्य हुए, जिन्हें राजाओं के दरबार में त्रिभुवन-मल्ल-वादिगज कहा जाता था इनके सधर्मा माधवचन्द्र, उनके शिष्य बालचन्द्र विद्य थे। क्राणरगण की तिन्त्रिणी गच्छ की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख लेख न० ३१३, ३७७, ३८६, ४०८ और ४३१ में आया है। रामणन्दि, पद्मणन्दि, मुनिचन्द्र मुनिचन्द्र, के भानुकोति और कुलभूपण (४३१ ले०) भानुकोति के नयकीति और कुलभूषण के सकलचन्द्र हए। यापनीय संघ-की स्थापना दर्शन सार के कर्ता देवसेन मूरि के कथनानुसार वि० स० २०५ में श्री कलश नाम के श्वेताम्बर साधु ने की थी। अर्थात् यह सघ श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद की उत्पत्ति से लगभग ७० वर्ष १. जैन एण्टीक्वेरी भा० ६, अक २ १० ६६ न० ५८ २. जैन शि० ले० सं० भा० २ १० ४१६ ३. कल्लाणे वरणयरे दुण्णिमए पचउत्तरे जादे । जावणिय संघभावो मिरिकलसादो हु मेवडदो। -दनसार २६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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