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________________ जैन-सघ परिचय सूरस्थमम-मूलसघ का एक गण सूरस्थ नाम से प्रसिद्ध है। लेख न० १८५, २३४, २६६,३१८, ४६० और ५४१ से ज्ञात होता है कि इन लेखो मे सूरस्त, सुराष्ट्र प्रथवा सूरस्थ नाम से उल्लेख है। इनमें अन्वय सौर गच्छ प्रादि का कोई उल्लेख नही है । इसका सूरस्थ नाम कैसे पडा, इसका इतिवृत्त ज्ञात नही । इस गण का पहला उल्लेख नं. १८५ मे है जिसमें मूलसंघ को वडान्वय ने युक्त लिखा है। जान पडता है, सूरस्थगण पहले मूलसघ के सेनगण से सम्बन्धित था। अथवा उस संघ के साधगण मूल सघ सूरस्थ गण मे मम्मिलित रहे हो। इस गण के ११वी सदी के पूर्वार्ध से लेकर १३वी शताब्दी तक के लेख है। लेख न० २६६ मे जो शक स० १०४६ का है, सूरस्थगण के विद्वानों का उल्लेख दिया है । अनन्तवीर्य, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र, कल्नेले यदेव (गमचन्द्र) अष्टो पवामि हेमनन्दि, विनयनन्दि, एकवीर और उनके सधर्मा पल्ल पडित (अभिमानदानिक)। इसमे हेमनन्दि मुनीश्वर को गद्धान्तपारग ओर सूरस्थगण भास्कर बतलाया है।' ओर पल्ल पडित की बडी प्रशमा की है। हेमनन्द के शिप्य विनयनन्दि थे। बलात्कारगण-का उल्लेख लेख न० २०८ (सन् १०७५) के लगभग मिलता है, जिसमे इस गण के चित्रकूटाम्नाय के मुनि मुनिचन्द्र और उनके शिष्य अनन्तीनि का उल्लेख है। लेख न० २२७ (सन् १०८७ ई.) मे इस गण के कतिपय मनियो की परम्पग दी गई है। उनके नाम इस प्रकार हे-नयनन्दि, श्रीधर, श्रीधर के चन्द्रकीति, श्रतकोति ओर वामपूज्य। चन्द्रकीति के नेमिचन्द्र और वासुपूज्य के पद्मप्रभ । लेख के अन्त में इस गण का नाम बलात्कारगण दिया गया है। इस गण का नाम वलात्कार गण कब और कैसे पडा, इसका कोई इनिवृत्त मेरे देखने मे नही पाया। डा. गुलाबचन्द चोधरी ने जैन शिलालेख स० तीसरे भाग की प्रस्तावना के पृ०६२ पर लिखा है कि नाम माम्य का देखते हा यापनियों के बलहारि या वलगार गण मे निकला है। क्योकि दक्षिणापथ के नन्दि सघ में 'बलिहारि या बलगार गण के नाम पाए जाते है, किन्तु उत्तरापथ के नन्दि सघ में सरस्वती गच्छ ओर बलात्कार गण ये दो ही नाम मिलते है। 'बलगार' शब्द स्थान विशेप का द्योतक है। लगता है बलगार नामक स्थान से निकलने के कारण 'बलगार' नाम ख्यात हा होगा। 'बलगार' नाम का एक ग्राम भी दक्षिण भारत में है। बलगार गण का पहला उल्लेख सन् १०७१ का है। इसमे मूलसघ नन्दिमघ का बलगार गण ऐमा नाम दिया है। इसमें वर्धमान महावादी विद्यानन्द उनके गुरुबन्धु ताकिकार्क माणिक्यनन्दि-गुणकीति-विमलचन्द्र-गुणचन्द गण्ड विमुक्त उनके गुरु वन्धु अभयनन्दि का नामोल्लख है। अोर क्रम न० १५५ मे अभयनन्दि-सकलचन्द-गण्ड विमुक्त त्रिभुवनचन्द्र । इनमे गुणकीति और त्रिभुवनचन्द्र को मिले दानो का वर्णन हे । किन्तु बलात्कार शब्द स्थानवाचो नही है प्रत्युत जबरदस्ती क्रियानो मे अनुरक्त होने या लगने आदि के कारण इसका नाम बलात्कार हुअा जान पडता है। १४वी १५वी शताब्दी के विद्वान भट्टारक पद्मनन्दी, जो भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठिन हुए थे और जो इस गण के नायक थे, सरस्वती की पापाण मूर्ति को बलात्कार से मत्र शक्ति द्वारा बुलवाया था, इस कारण उसे बलात्कार कहा जाता है, और गच्छ 'सारस्वत' नाम से ख्यात हमा है। परन्तु यह बात भी जी को नही लगती, क्योकि यह घटना अर्वाचीन है। ये पद्मनन्दि विक्रम की १४-१५वी शताब्दी के विद्वान है और बलात्कार गण १. तन्मोखो (२) विबुधाधीशो हेमनन्दि मुनीश्वरः । राद्धान्त-पारगो जातस्सूरम्थ-गण-भास्कर । -जन ले० स० भा०२ पृ० ४०० २. देखो, मिडियावल जैनिज्म पृ० ३२७ ३. पद्मनदी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।। ऊर्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सरस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनन्दिने ॥२ ४. जैन लेख स० भा० ४ ले० १५४, १५५, ५० १०२, पृ. १११
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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