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________________ सघ-भेद ५५ भट्टारक इन्द्रनन्दि ने अपने नीतिसार मे अहंबली आचार्य द्वारा सघ निर्माण का उल्लेख किया है। उन मघो के नाम सिह, सघ, नन्दि सघ, सेन मघ और देव सघ बतलाये है। और यह भी लिखा है कि इनमें काई भेद नही है। इसमे भी निम्न मघो को जैनाभास बतलाया है। उनको सख्या पाच है-गोपुच्छिक, श्वताम्बर, द्रविड़, यापनीय और नि: पिच्छ । इन्द्रनन्दि ने कही भी काप्ठासघ को जैनाभास नही बतलाया। भगवान महावीर का सघ, जो उनके समय और उनके बाद निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के रूप में प्रसिद्ध था, भद्रबाह श्रतकेवली के समय दक्षिण भारत में गया था। वह निग्रन्थ महाश्रमण संघ ही था। वह निग्रंन्थ संघ ही बाद मे मूल सघ के नाम से लोक मे प्रसिद्ध हुआ। इसी महाश्रमण संघ का दूसरा भेद श्वेताम्बर महाश्रमण संघ के नाम से ख्यात हुआ। कछ समय बाद यही निर्ग्रन्थ मूल संघ विचार-भेद के कारण अनेक अतभेदो में विभक्त हो गया। यापनीय सघ, कर्चकसघ, द्रविडसघ, काष्ठासघ ओर माथुरसंघ आदि के नामाने विभक्त होता गया, पर गण-गच्छ भेद भी अनेक होते गये। किन्तु मल सघ इन विषम परिस्थितिया मे भी अपने अस्तित्व का कायम रखते हए, प्रोर राज्यादि के सरक्षण के अभाव मे, तथा शैवादि मतो के अाक्रमण आदि के समय भी अपन अस्तित्व के रखन म समर्थ रहा है। अन्तर्भद केवल निग्रन्थ महाश्रमण संघ मे ही नही हुए किन्तु श्वेतपट महाश्रमण संघ भी अपने अनेक अन्तर्भदा में विभक्त हना विद्यमान है। वीर शासन सघ के दा भेदो मे विभक्त होने के समय जो स्थिति बनो वह अपने मन्तभैदा के कारण और भी दुर्बल हो गया, किन्तु अपनी मूल स्थिति को कायम रखने में समर्थ रहा । मूलसंघ मल सघ कब कायम हया और उसे किसने कहाँ प्रतिष्ठित किया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नही मिला। अर्हदबलि द्वारा स्थापित सघो में मलमंघ का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सिह, नन्दि, मेन ओर देव इन सघो को किसी ने जैनाभास नही बतलाया। ये सघ मलमव के ही अन्तर्गत है। इस कारण ये मलमघ नाम से उल्लेखित किये गये है। मलसघ का सबसे प्रथम उल्लेख 'नोण मगल' के दान पत्र में पाया जाता है, जो जैन शि०स० भा०२१० ६०-६१ मे मुद्रित है । यह शक म०३४७ (वि० स० ४८२) मन ४२५ के लगभग का है। जिसे विजयकोति के लिये उरनर के जिन मन्दिरो को कोणि वर्मा ने प्रदान किया था। दूसरा उल्लेख पाल्नम (कोल्हापुर) में मिले शक स० ४११ (वि०म० ५१६) के दान पत्र में मिलता है, जिसमें मलमघ काकोपल आम्नाय के मिहनन्दि मुनि को अलक्तक नगर के जैन मन्दिर के लिए कुछ ग्राम दान मे दिये है। दानदाता थे पुलकेशी प्रथम के सामन्त मामियार। इन्होने जैन मदिरो की प्रतिष्ठा कराई थी, और गगराजा माधव द्वितीय तथा प्रविनीत ने कुछ और ग्रामादि कोण्डकुन्दान्वय का उल्लख वदन गुप्पे के लेख न० ५४ भा० ४ पृ० २८ मे पाया जाता है। जो शक स० ७३० सन् ८०८ का है और उत्तरवर्ती अनेक लखो मे मिलता है। कौण्डकुन्दान्वय का उल्लेख मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक स० ३८८ है, पर उसे सन्देह की कोटि म गिना जाता है। इसमें कोण्डकुन्दान्वय के साथ देशीयगण का उल्लख मिलता है। कुन्दकुन्द का वास्तविक नाम पद्मनन्दि था। किन्तु कोण्डकुन्द स्थान से सम्बद्ध हान के कारण व कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। ____शिलालेख सग्रह के दूसरे भाग में प्रकाशित ६० और ६४ नम्बर के लेखो में मूलसघ के वीरदेव और चन्द्रनन्दि नामक दो आचार्यों के नाम उल्लिखित है। मूलसघ में अनेक बहुश्रुत ताकिकशिरोमणि योगीश विद्वान आचार्य हुए है जिन्होने वीर शासन को लोक में चमकाया। उनमें कुछ नाम प्रमुख है-कुन्दकुन्द, उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) बलाकपिच्छ, समन्तभद्र, देवन पात्रकेसरी, सुमतिदेव, श्रीदत्त, अकलक देव, ओर विद्यानन्द आदि। १ नीतिसार श्लोक ६-७, तत्त्वानुशासनादि सग्रह पृ० ५८ २ देखो, जैन लेख स० भाग २, ५० ५५ और ६०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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