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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है और वह यह कि महावीर की बीज पद रूप वाणी को इन्द्रभूति गौतम द्वादशांग सूत्रों में ग्रथित किया। और उसका व्याख्यान उन्होंने सुधर्म स्वामी को किया, जो समान बुद्धि के धारक थे । द्वादशांग की यह रचना भ० महावीर के जीवन काल में और उसके बाद गणधर और साधु परम्परा में कण्ठस्थ रही, उस समय उनमें वस्त्र पात्रादि पोपक कोई सूत्र या वाक्य नहीं थे। क्योंकि महावीर की परम्परा के सभी शिष्य - प्रशिष्यादि अन्तर्बाह्य परिग्रह के त्यागी नग्न दिगम्बर थे । वे सब उसी यथाजात मुद्रा में विहार करते थे । महावीर के निर्वाण के पश्चात् जब इन्द्रभूति केवल ज्ञानी हुए तब उन्होंने उस सब विरासत को सुधर्म स्वामी को सौंपा, जो यथाजात मुद्रा के धारक थे । इन्द्रभूति के निर्वाण के बाद सुधर्म स्वामी केवली हुए । उन्होंने वीर शासन की उस विरासत या धरोहर को जम्बूस्वामी को सौंपा, जो दिगम्बर मुद्रा के धारक थे। और जम्बू स्वामी के केवली और निर्वाण होने पर वह विरासत ५ श्रुतके वलियों में रही । तथा उन्होंने अन्य श्राचार्यों को द्वादशांग की प्ररूपणा की । चार श्रुतके वलियों तक वह विरासत अविच्छिन्न रही - उस समय में कोई भेदजनक घटना न घटी। किन्तु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के कारण परिस्थितिवश उत्तर भारत में रहने वाले साधुत्रों को मूल परम्परा के विरुद्ध आचरण करना पड़ा, उससे उन्हें मोह हो गया, वह उन्हें सुखकर प्रतीत हुई, इसलिए सुभिक्ष होने पर भी उन्होंने छोड़ना न चाहा । जिन्होंने छोड़ दिया उन्होंने प्रायश्चित्त लेकर पूर्व श्रमण परम्परा को अपना लिया, वे साधु अवश्य धन्यवाद के पात्र हैं । किंतु अधिकांश साधुओं ने आचार-विचार की शिथिलता को जो मध्यम मार्ग की जनक थी, अपना लिया, और कदाग्रहवश उसे छोड़ना न चाहा। उन्हीं के आचार-विचार की शिथिलता से संघ भेद पनपता हुआ संघर्ष का कारण बना। इस तरह महावीर का निर्मल शासन दो भेदों में विभाजित हुआ । उसके बाद साधु परम्परा में बराबर शिथिलता बढ़ती ही रही और आज उसकी भीषणता पहले से भी अधिक बढ़ गयी है । दिगम्बर श्वेताम्बर संघ में भी अनेक संघ गण-गच्छादि के कारण अनेक संघ बनते-बिगड़ते रहे । आज भी इन दोनों सम्प्रदायों में संघ-गण- गच्छादि की विभिन्नता कटुता का कारण बनी हुई है । और उसके कारण सम्प्रदायों में वात्सल्य का भी अभाव हो गया है । अपने-अपने संघ के विभिन्न गण- गच्छादि में भी वैसा वात्सल्य दृष्टिगोचर नहीं होता । इसमें कलिकाल के स्वभाव के साथ कलुषाशय वाले व्यक्तियों का सद्भाव भी एक कारण है । जैनसेड - परिचय ૪ इन्द्रनन्दि के श्रुतावतारानुसार पुण्ड्रवर्धन पुरवासी प्राचार्य अहंवली प्रत्येक पांच वर्षो के अन्त में सौ योजन में बसने वाले मुनियों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक समय उन्होंने ऐसे प्रतिक्रमण के अवसर पर समागत मुनियों से पूछा- क्या सब आ गए। मुनियों ने उत्तर दिया- हां, हम सब अपने संघ के साथ आ गये। इस उत्तर को सुनकर उन्हें लगा कि जैनधर्म व गण पक्षपात के साथ ही रह सकेगा । अतः उन्होंने संघों की रचना की। जो मुनि गुफा से आये थे उनमें से किसी को 'नन्दि' नाम दिया, और उनको 'वीर' जो अशोकवाट से आये थे । उनमें से कुछ को 'अपराजित' और कुछ को 'देव' नाम दिया। जो पंचस्तूप निवास थे उनमें से कुछ को 'मेन' नाम दिया और कुछ को 'भद्र'। जो शाल्मलि वृक्ष मूल से आये थे, उनमें से किन्हीं को 'गुणधर' और किन्हीं को 'गुप्त' । जो खण्डकेसरवृक्ष के मूल से आये थे उनमें से कुछ को 'सिंह' नाम दिया और किन्हीं को 'चन्द्र' । इन्द्रनन्दि ने अपने इस कथन की पुष्टि में एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है : "आयातो नन्दिवीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटावाश्चान्योऽपरादिजित इति यतयो सेन- भद्राह्वयौ च । पञ्चस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभः शाल्मलीवृक्षमूलात्, निर्यातौ सिचन्द्र प्रथितगुणगणौ केसरात्खण्डपूर्वात् ।। ६६ श्राचार्य देवसेन ने दर्शनसार में श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़, काष्ठा संघ, और माथुर संघ इन पांचों संघों को जैनाभास बतलाया है । १. देखो, इन्द्रनन्द श्रुनावतार श्लोक ६१ से ६५ तक २. दर्शनसार
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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