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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्रादि का वर्णन करती है। थलगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा पृथिवी, के भीतर से गमन करने के कारणभूत मंत्र-तंत्र पोर तपश्चर्या का तथा वस्तुविद्या और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा मायारूप इन्द्रजाल के कारणभूत मत्रतत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। रूपगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा सिंह, घोड़ा, हरिण आदि का आकार धारण करने के कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। तथा उसमें चित्रकर्म, काप्ठकर्म, लेप्यकर्म आदि का भी वर्णन रहता है। आकाशगता चलिका उतने ही पदों के द्वारा आकाश में गमन करने के कारणभूत मंत्र तत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। इन पांचों चलिकाओं के पदों का जोड़ दस करोड़, उनचास लाख छयालीस हजार है। पूर्व नामक अर्थाधिकार के चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुप्रवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार। उत्पादपूर्व एक करोड़ पदों के द्वारा जीव, काल पुद्गल आदि द्रव्यों के उत्पाद, व्यय, और ध्रोव्य का वर्णन करता है । अग्रायणीपूर्व छयानवे लाख पदों के द्वारा सात सौ सुनय और दुर्नयों का तथा छह द्रव्य, नौ पदार्थ और पांच अस्तिकायों का वर्णन करता है। वीर्यानुप्रवाद नाम का पूर्व-सत्तर लाख पदों के द्वारा प्रात्म वीर्य, परवीर्य उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य तपवीर्य का वर्णन करता है । अस्ति नास्तिप्रवादपूर्व-साठ लाख पदों के द्वारा स्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा सब द्रव्यों के अस्तित्व का वर्णन करता है। जैसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव की अपेक्षा जीव कथंचित् सत्स्वरूप है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा जीव कथंचित् नास्ति स्वरूप है । स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की एक साथ विवक्षा होने पर जीव कथंचित् अवक्तव्य स्वरूप है। स्वद्रव्यादिचतुष्टय और परद्रव्यादिचतुष्टय की क्रम से विवक्षा होने पर जोव कथंचित् अस्ति नास्तिरूप है। इसी तरह अन्य अजीवादि का भी कथन कर लेना चाहिये। ज्ञान प्रवादपूर्व-एक कम एक करोड़ पदों के द्वारा मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानों का तथा कुमति ज्ञान प्रादि तीन अज्ञानों का वर्णन करता हैं । सत्यप्रवाद नाम का पूर्व एक करोड़ छह पदों के द्वारा दस प्रकार के सत्य वचन अनेक प्रकार के असत्य वचन, और बारह प्रकार की भाषाओं आदि का वर्णन करता है। प्रात्मप्रवादपूर्व छव्वीस करोड़ पदों के द्वारा जीव-विषयक दुर्नयों का निराकरण करके जीव द्रव्य की सिद्धि करता है-जीव है, उत्पाद व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण से युक्त है, शरीर के बराबर है, स्व-पर प्रकाशक है, सूक्ष्म है, अमूर्त है, व्यवहारनय कर्मफल का और निश्चयनय से अपने स्वरूप का भोक्ता है, व्यवहारनय से शुभाशुभकर्मो का और निश्चयनय से अपने चैतन्य भावों का कर्ता है । अनादिकाल से बन्धनबद्ध है, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है, ऊर्ध्व गमन स्वभाव है, इत्यादि रूप मे जीव का वर्णन करता है। कुछ प्राचार्यो का मत है कि प्रात्मप्रवादपूर्व सब द्रव्यों के आत्मा अर्थात् स्वरूप का कथन करता है। कर्म प्रवादपूर्व-एक करोड़ अस्सी लाख पदों के द्वारा आठों कर्मों का वर्णन करता है । प्रत्याख्यानपूर्व चौरासी लाख पदों के द्वारा प्रत्याख्यान अर्थात् सावद्य वस्तु त्याग का, उपवास की विधि और उसकी भावना रूप पाँचसमिति तीन गुप्ति आदि का वर्णन करता है। विद्यानुप्रवाद पूर्व एक करोड़ दशलाख पदों के द्वारा सात सौ अल्प विद्याओं का, पाँच सौ महाविद्याओं का और उन विद्यानों की साधक विधि का और उनके फल का एवं आकाश, भौम, अंग, स्वर स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, चिह्न इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता है। कल्याणवाद पूर्व छव्वीस करोड़ पदों के द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह नक्षत्र और तारागणों के चार क्षेत्र, उपपाद स्थान, गति, विपरीत गति और उनके फलों का तथा तीर्थङ्कर, बलदेव, वासदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि कल्याणकों का वर्णन करता है। प्राणावाय पूर्व तेरह करोड़ पदों के द्वारा अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म (शरीर आदि की रक्षा के लिये किये गए भस्मलेपन, सूत्रबन्धन आदि कर्म) जांगुलि प्रथम (विषविद्या) और स्वासोच्छ्वास के भेदों का विस्तार से वर्णन करता है। क्रियाविशाल पूर्व नौ करोड़ पदों के द्वारा वहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणों का, शिल्पकला का, काव्य-सम्बन्धी गुण-दोष का और छन्दशास्त्र का वर्णन करता है । लोक बिन्दुसार पूर्व बारह करोड़ पचास लाख
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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