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________________ ४३ द्वादशांग श्रुत और श्रुतकेवली अभय-वारिषेण और चिलात पुत्र इन दशमुनियों ने दारुण उपसर्गों को जीता है और अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। प्रश्न व्याकरण-नामक दसवां अंग तिरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा आक्षेप-प्रत्याक्षेप पूर्वक कपूर्ण प्रश्नों का समाधान करता है । अथवा प्राक्षेपणी विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार कथानों का वर्णन करता है। जो एकान्त दप्टियों का निराकरण करके छः द्रव्य और नौ पदार्थों का निरूपण करती है उसे प्राक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले पर सिद्धान्त के द्वारा स्वमिद्धान्त में दोष बतलाकर पीछे पर समय का खण्डन करके स्वसिद्धान्त की स्थापना की जाती है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। पूण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा निवेदनी कहलाती है। प्रश्न व्याकरण अग प्रश्न के अनुसार नष्ट, चिन्ता लाभ, अलाभ, सुख, दुखः, जीवित, मरण, जय, पराजय का भी वर्णन करता है। विपाकसूत्र-नाम का ग्यारहवां अंग एक करोड़ चौरासी लाख पदों द्वारा पूण्य-पाप रूप विवादों काप्रच्छे बुरे कर्मों के पलों का वर्णन करता है। इन समस्त ग्यारह अंगों के पदों का जोड़ चार करोड़, पन्द्रह लाख दो हजार है (४१५०२००० है ।) बारहवां अंग दृष्टि प्रवाद है। इसमें तीन सौ मठ मतों का-क्रियावादियों, प्रक्रियावादियों अज्ञान दप्टियों और वनयिक दृष्टियों का वर्णन और निराकरण किया गया है। दप्टिवाद के पांच अधिकार हैंपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका । उनमें से परिकर्म के पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसमुद्रप्राप्त, और व्याख्याप्रज्ञप्ति । चन्द्रप्रज्ञप्ति नामक परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की प्रायू, परिवार, ऋद्धि, गति और चन्द्रबिम्ब को ऊँचाई आदि का वर्णन करता है। सूर्यप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की प्रायु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, और सूर्यबिम्ब की ऊंचाई, दिन की हानि वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करना है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नाम का परिकम तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीप की भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के मनुप्य और तिर्यञ्चों का तथा पर्वत, हृद, नदी, वेदिका, क्षेत्र, आवास, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है। द्वीपसमूद्रप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म वावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपत्य के प्रमाण से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीप-सागर के अन्तर्भूत अन्य अनेक बातों का वर्णन करता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम का परिकम चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य का तथा भव्य और अभव्य जीवों का वर्णन करता है। दप्टिवाद अग का सूत्र नाम का अर्थाधिकार अठासी लाख पदों के द्वारा जीव प्रबन्धक है, अवलेपक है, अकर्ता है, अभोक्ता है, निर्गण है, व्यापक है, अणुप्रमाण है, नास्ति स्वरूप है, अस्तिस्वरूप है, पृथिवी प्रादि पंचभतों से जीव उत्पन्न हआ है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादिरूप से क्रियावाद, अत्रियावाद अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकवाद आदि तीन सौ सठ मतों का वर्णन पूर्वपक्षरूप से करता है। प्रथमानयोग-नाम का तीसरा अर्थाधिकार पांच हजार पदों के द्वारा चौबीस तीर्थकर, वारह चक्रर्वी, नौ प्रतिनारायण के पुराणों का तथा जिनदेव विद्याधर, चक्रवर्ती, चारणऋद्धिधारी मुनि और राजा आदि के वंशों का वर्णन करता है। चलिका के पांच भेद हैं-जलगता, थलगता, मायागता, रूपगता, और आकाशगता । जलगता चलिका दो करोड नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदों के द्वारा जल में गमन तथा जल स्तम्भन के कारण भूत मंत्र-तंत्र तपश्चर्या १. अनुतरेम्बोपपादिका अनुत्तगैपपादिका :-ऋपिदास-धन्य-मुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्रअभय-वारिषेण-चिलातपुत्र इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवं वृषभादीनां त्रयोविंशतेस्ती वन्येऽन्ये च दश दशानगाग दश दश दारुणानुपसर्गानिजित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्न इत्येवमनुत्तरीपपादिकाः दशास्या वर्ण्यन्त इत्यनुत्तरोपपादिक दशा। -तत्त्वा० वा० पृ०७३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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