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________________ १५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५५१ और निजाम स्टेट के 'कुलपाक' नाम के तीर्थस्थान में उसको स्थापित किया। इस मूर्ति के कारण वह एक तीर्थ बन गया । कवि ने ग्रन्थ के शुरू में माणिक जिन की, सिद्ध, सरस्वती, गणधर और यक्ष-यक्षी की स्तुति की है । ग्रन्थ में समय नही दिया । सभवतः ग्रन्थ को रचना सन् १७०० के लगभग हुई है ( अनेकान्त वर्ष १, किरण ६-७ ) पं० जगन्नाथ इनकी जाति खडेलवाल और गोत्र सोगाणी था। इनके पिता का नाम सोमराज श्रेष्ठी था । जगन्नाथ ज्येष्ठ पुत्र थे और वादिराज लघु पुत्र थे। जगन्नाथ संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे । यह टोड़ा नगर के निवासी थे, जिसे 'तक्षकपूर' कहा जाता था । ग्रन्थ प्रशस्तियों में उसका नाम तक्षकपुर लिखा मिलता है। १६वीं १७वीं शताब्दी में टोडा नगर जन-धन से सम्पन्न नगर था । उस समय वहा राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहां खंडेलवाल जैनियों की अच्छी बरती थी। टोडा में भट्टारकीय गद्दी थी, और वहा एक अच्छा शास्त्र भडार भी था। प्राकृत और संस्कृत भाषा के अच्छे ग्रन्थो का राम था। वहां अनेक सज्जन संस्कृत के विद्वान हुए है । संवत् १६२० में वहां की गद्दी पर मंडलाचार्य धर्मचन्द्र विराजमान थे, जिन्होंने संस्कृत में गोतम चरित्र की रचना की है। यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। पडित जगन्नाथ भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने 'श्वेताम्वर पराजय की प्रशस्ति में अपने को कवि-गमक-वादि और वाग्मि जेमे विशेषणों से उल्लेखित किया है । - 'कवि - गमक- वादि- वाग्भित्व गुणालंकृतेन खांडिल्लवंशोद्भव पोमराज श्रेष्ठ सुतेन जगन्नाथ वादिना कृतौ केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् ।' कर्मस्वरूप नामक ग्रन्थ को प्रशस्ति में कवि ने अपना नाम अभिनव वादिराज सूचित किया हैं' । कवि की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं- चतुर्विंशतिसंधान, (स्वोपज्ञटीका सहित) सुख निधान, नेमिनरेन्द्रस्तोत्र मुषेणचरित्र, कर्म स्वरूप वर्णन । चतुविशति संधान - स्रग्धरा छन्दात्मक निम्न पद्य को २५ बार लिख कर २५ अर्थ किये हैं। एक-एक प्रकार में २४ तीर्थकरों की अलग-अलग स्तुति की है, और अन्तिम २५वें पद्य में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की है। श्रयान् श्री वासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीक्रमांकोऽथ धर्मो पुष्पदन्तो मुनिसुव्रत जिनोऽनंतवाक् हर्यक : श्री सुपार्श्वः । शान्ति: पद्मप्रभोऽरो विमलविभुरसौ वर्द्धमानोप्यजांको । मल्लिने मिर्न मिर्मा सुमतिरवतु सच्छ्री जगन्नाथ धीरं ॥१॥ दूसरी रचना 'श्वेताम्बर पराजय' है । कवि ने इस ग्रन्थ को विबुध लाल जी की आज्ञा से बनाया है । इसमें श्वेताम्बरो द्वारा मान्य ‘केवलिभुक्ति' का सयुक्तिक खण्डन किया है । ग्रन्थ में 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र स्वोपज्ञ' का एक पद्य उद्धृत किया है : यतदु तव न भुक्तिर्नष्टः दुःखोदयत्वाद्वसनमपि न चांगे वीतरागत्वतश्च । इति निरुपमहेतु न ह्यसिद्धाद्यसिद्धौ विशद-विशद दृष्टीनां हृदिल: ( ? ) सुयुक्तये ।" कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १७०३ में दीपोत्सव के दिन समाप्त की थी । उसका अन्तिम पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है इति श्वेताम्बर पराजये कवि गमक- वादि- वाग्मित्व गुणालंकृतेन खांडिल्ल वशोद्भव पोमराज श्रेष्ठ सुतेन जगन्नाथ वादिना कृतौ केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् ।" तीसरी रचना सुखनिधान है - इस ग्रन्थ में विदेह क्षेत्रीय श्रीपाल चक्रवर्ती का कथानक दिया हुआ है । प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ की रचना सरस और प्रसाद गुण से युक्त है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने राजस्थान में 'मालपुरा' — कर्मस्वरूप वर्णन प्रश० १. पडित जगन्नाथैरपराख्याभिनववादिराजं विरचिते कर्मस्वरूप ग्रन्थे ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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