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________________ ५५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ की कृति है या अन्य की, यह ग्रन्थ के अवलोकन के बिना निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इनके अतिरिक्त कवि की प्रन्य रचनाए अन्वेषणीय है। कवि का समय १७ वी शताब्दी है। पंडित शिवाभिराम कवि ने अपना परिचय नही दिया पार न गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। केवल अपने को 'पुषद वनिय' का पुत्र बतलाया है। पडित शिवाभिराम १७वो शताब्दी के विद्वान थे। इनकी दो कृतिया उपलब्ध है पट् चतुर्थ-वर्तमान-जिनार्चन ; और चन्द्रप्रभ पुराण सग्रह (अष्टमजिन पुराण संग्रह)। इनमें से प्रथम ग्रन्थ की रचना मालवदेश में स्थित विजयसार के 'दिविज' नगर के दुर्ग में स्थित देवा लय में, जब परिकुलशत्रु सामन्तसेन हरितनु का पुत्र अनुरुद्ध पृथ्वो का पालन कर रहा थाः जिस के राज्य का प्रधान सहायक रघुपति नाम का महात्मा था। उसका पुत्र ध-यराज ग्रन्थ कर्ता का परम भक्त था। उसो की सहायता से वि० सं०१६६२ में बनाकर समाप्त किया है नवशि (?) च नयनाख्ये कर्मयक्तेन चन्द्र, गतिवति सति तो विक्रमस्यैव काले। निपततितुषारे माघचद्रावतारे जिनवर पदचर्चा सिद्धये सप्रसिद्धा ॥१८ दूसरे ग्रन्थ में पाठव तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिन का जीबन-परिचय अकित किया गया है । उसमें २७ गगई। प्रशस्ति में बतलाया है कि वहद्गुर्जरवश का भूपण राजा तारामिह था, जो कुम्भनगर का निवासी था और दिल्ली के बादशाह द्वारा सम्मानित था। उसके पट्ट पर साममिह हआ जिसे दिगम्बराचार्य के उपदेश में जैन धर्म का लाभ हुआ था। उसका पुत्र पनसिंह हुआ, जो राजनीति में कुशल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम 'वाणा दवी' था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। उसीके उपदेश एवं अनुरोध से उक्त चरित ग्रन्थ की रचना हुई है। ग्रन्थ मे रचना काल दिया हुमा नहीं है । अतएव निश्चित रूप में यह बतलाना कठिन है कि शिवाभिराम ने उस ग्रथ का र कब को है। पर प्रथम ग्रन्थ की प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का रचना १७वी शताब्दी के अन्तिम चरण में पंडित अक्षयराम यह भट्टारक विद्यानन्द के शिष्य थे। भट्टारकीय पडित होने के कारण सम्कृत भापा के विद्वान थे । इनका सभय विक्रम की १८वी शताब्दी है। जयपुर के राजा सवाई जर्यासह के प्रधान मन्त्री थावक ताराचन्द्र । ने चतुर्दशी का व्रत किया था, उसी का उद्यापन करने के लिये पडित अक्षयराम ने संवत् १८०० में चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन 'चतुर्दशीव्रतोद्यापन' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। अब्दे द्विशून्याष्टकांके (१८००) चैत्रमासे सिते दले। पंचम्या च चतुर्दश्या ब्रतस्योद्योतन कृतं ॥४॥ कवि नागव इसके पिता का नाम 'सोड डेसे टिट' था. जो कोटिलाभान्वय का था और माता का नाम 'चौडाम्बिका' था। कवि ने 'माणिकस्वामिचरित' की रचना की है। यह ग्रन्थ भामिनी पटपदी में लिखा गया है, इसमें ३ सन्धिया पोर २६८ पद्य हैं। इसमें माणिक्य जिनेश का चरित अंकित किया गया है। उसमें लिखा है-कि देवेन्द्र ने अपना 'माणिक जिनबिम्ब' रावण की पत्नी मदोदरी को उसकी प्रार्थना करने पर दे दिया और वह उसकी पूजा करने लगी। राम-रावण युद्ध में रावण का वध हो जाने के बाद मन्दोदरी ने उस मूर्ति को समुद्र के गर्भ में रख दिया। बहुत समय बीतने पर 'शंकरगण्ड' नाम का राजा एक पतिव्रता स्त्री की सहायता से माणिक स्वामी की वह मूर्ति ले आया १. श्री जयसिंह भूपस्य मंत्रिमुख्योऽग्रणी सता। श्रावकस्ताराचंद्राख्यस्तेनेदं व्रत समुदतं ॥ -जैन ग्रन्थ प्र० भा०११०२७
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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