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________________ ५४६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अर्ध कथानक के इस उल्लेख से मालूम होता है कि प्रस्तुत पाडे रूपचन्द्र हो उक्त 'समवसरण पाठ' के रचयिता है । चूंकि उक्त पाठ भी सवत् १६६२ में रचा गया है और प० बनारसी दास जो ने उक्त घटना का समय भी अर्धकथानक में स० १६९२ दिया है । च कि उक्त पाठ आगरे को घटना में पूर्व हो रचा गया था, इससे प्रशस्ति मे उसका कोई उल्लेख नही किया गया। प० बनारसी दास ने नाटक समयसार को रचना स०१६६३ में समाप्न को है। ओर स. १६६४ में रूप चन्द्र की मृत्यु हो गई। अत: नाटक समयसार प्रशस्ति म पाँच विद्वाना मे प० रूपचन्द्र प्रथम का उल्लेख किया है । वे वही रूपचन्द्र है जो आगरा में सं० १६६० के लगभग आये थे। इनकी सस्कृत भाषा की एकमात्र कृति 'समवसरण पाठ अथवा केवल ज्ञान कल्याणाची' है। इसमे जेन तीर्थकर के केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर जो अन्तर्बाह्य विभति प्राप्त होती है, अथवा ज्ञानावरण, दशनावरण, मोहनीय और अन्तरायरूप घातिया कर्मों के विनाश मे अनन्त चतुष्टय रूप आत्म निधि की समुपलब्धि होती है उसका वर्णन है । साथ ही बाह्य में जो समवमरणादि विभति का प्रदर्शन होता हे वह सब उनके गुणातिशय अथवा पुण्यातिशय का महत्व है-वे उस विभूति से सर्वथा अलिप्त अन्तरीक्ष में विराजमान रहते 7 ओर वीतराग विज्ञान रूप आत्म-निधि के द्वारा जगत का कल्याण करते है, समार के दुखी प्राणियो को उममे छुटकारा पान प्रार शाश्वत सुख प्राप्त करने का सुगम मार्ग बतलाते है। कवि ने इस पाठ की रचना आचार्य जिनसेन के आदि पुगण गत 'ममवसरण' विषयक कथन को दष्टि में रखते हए की है। प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्ली के बादशाह जहागीर के पूत्र गाहजहाँ के राज्य काल में मवत् १६६१ के आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष मे नवमी गुरुवार के दिन, सिद्धि योग में और पुनर्वसु नक्षत्र में समाप्त तुपा है जेमा कि उसके निम्न पद्य मे स्पष्ट है: श्रीमत्सवत्सरेऽस्मिन्नरपति नत यद्विक्रमादित्य राज्येऽतीते दुगनंद भद्राशुक्रत परिमिते (१६९२) कृष्णपक्षे च मासे । देवाचार्य प्रचारे शुभनवमतिथौ सिद्धयोगे प्रसिद्ध । पौनर्वस्वित्पुडस्थे (?) समवसृतिमहं प्राप्त माप्ता समाप्ति ।।३ ४ पं० रूपचन्द्र ने 'केवल ज्ञान कल्याणक पूजा' के बनवाने में प्रेरक भगवानदास के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया है जो इस प्रकार है: मूल संघान्तर्गत नन्दिसघ, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय मे वादी म्पो हस्तियों के मद को भेदन करने वाले सिहकीति हुए । उनके पट्ट पर धर्मकीति, धर्मकीति के पट्ट पर ज्ञानभूपण, ज्ञानभपण के पर भारती भूषण तपस्वी भट्टारको द्वारा अभिनन्दनीय विगतदूषण भट्टारक जगतभूषण हए । इन्ही भ० जगद्भूषण की गोलापूर्व' आम्नाय में दिव्यनयन हुए। उनकी पत्नी का नाम दुर्गा था। उससे दो पुत्र हुए। १. यह उपजाति है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। इसका निवाम अधिकतर बंदे नखण्ड में पाया जाता है यह सागर, दमोह जबलपुर, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, अहार, महोबा, नाबई, धुवेला, शिवपुरी, दिल्ली और ग्वालियर के आस-पास के स्थानो में भी निवास करते है। १२वी और १३वी शताब्दी के मूर्ति लेग्यो मे टमकी समृद्धि का अनुमान लगाया जा मकता है। इस जाति का निकास 'गोल्लागढ' (गोलाकोट) की पूर्व दिशा से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा में रहने वाले गोलापूर्व कहलाए। यह जाति किमी समय दक्ष्वाकु वशी क्षत्रिय थी। किन्तु व्यापार आदि करने के कारण वरिणको मे इनकी गणना होने लगी। ग्वालियर के पास कितने ही गोलापूर्व विद्वानो ने ग्रन्थ रचना और ग्रंथ प्रतिलिपि करवाई हैं। ग्वालियर के अन्तर्गत श्योपुर (शिवपुरी) मे कवि धनगज गोलापूर्व ने स. १६६४ से कुछ ही समय पूर्व भव्यानद पंचामिका' (भक्तामर का भाषा पद्यानुवाद) किया था और उनके पितृव्य जिनदास के पुत्र खडगसेन (असिसेन) ने पन्द्रह-पन्द्रह पदो की एक सस्कृत जयमाला बनाई थी। इसकी एक जोर्ण-शीर्ण सचित्र प्रति मुनि कान्तिसागर जी के पास थी। धनराज का हिन्दी पद्यानुवाद पाडे हेमराज
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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