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________________ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि . ५४५ प्रागरा में पं० रूपचन्द्र जी गुनी का प्रागमन हुआ और उन्होंने तिहुना साहू के मन्दिर में डेरा किया । उस समय मागरा में सब अध्यात्मियों ने मिलकर विचार किया कि उक्त पंडित जी से प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार ग्रन्थ का वाचन कराया जाय। चनांचे पंडित जी ने गोम्मटसार ग्रन्थ का प्रवचन किया और मार्गणा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा कर्मबन्धादि के स्वरूप का विशद विवेचन किया। साथ ही क्रियाकाण्ड और निश्चय व्यवहार नय की यथार्थ कथनी का रहस्य भी समझाया और यह भी बतलाया कि जो नय दृष्टि मे विहीन हैं उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती तथा वस्तु स्वभाव से रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नही हो सकते । पंडित रूपचन्द्र जी के वस्तु तत्त्व विवेचन से पं० बनारसी दास का वह एकान्त अभिनिवेश दूर हो गया जो उन्हें और उनके साथियों को 'नाटक समयसार' की रायमल्लीय टीका के अध्ययन से हो गया था और जिसके कारण वे जप, तप, सामायिक, प्रतिक्रमण प्रादि क्रियाओं को छोड़कर भगवान को चढ़ा हुअा नैवेद्य भी खाने लगे थे। यह दशा केवल बनारसी दास जी की नहीं हई किन्तु उनके साथी 'चन्द्रभान, उदयकरन और थानमल्ल की भी हो गई थी। ये चारों ही जने नग्न होकर एक कोठरी में फिरते थे और कहते थे कि हम मुनिराज हैं, हमारे पास कुछ भी परिग्रह नहीं है। जैसा कि अर्धकथानक के निम्न दोहे से स्पष्ट है : "नगन होंहि चारों जने फिरहि कोठरी मांहि । ___ कहंहि भये मुनिराज हम, कछु परिग्रह नांहि ।" पांडे रूपचन्द्र जी के बचनों को सुनकर बनारसी दास जी का परिणमन और रूप ही हो गया। उनकी दृष्टि में सत्यता प्रोर श्रद्धा में निर्मलता का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने उसे दूर किया । उस समय उनके हृदय में अनुपम ज्ञान ज्योति जागृत हो उठी थी, और इमीसे उन्होंने अपने को 'स्याद्वाद परिणति' में परिणत बतलाया है। ___ सं० १६९३ में पं० बनारसी दास ने प्राचार्य अमृत चन्द्र के 'नाटक समयसार कलश' का हिन्दी पद्यानवाद किया मोर संवत् १६६४ में पंडित रूपचन्द्र जी का स्वर्गवास हो गया । १. म० १६६० के लगभग रूपचन्द्र का आगरा में आगमन हुआ। अनायास इस ही समय नगर प्रागरे थान । रूपचन्द्र पडित गुनी प्रायो पागमजान ॥६३० तिहुना साहु देहग किया, तहाँ पाय तिन डेरा लिया। अर्धकथानक तिहना साह का यह देहरा स. १६५१ से पहले का बना हुआ है। कविवर भगवती दाम ने सं० १६५१ में निमित अगलपुर जिनमंन्दिर' के 4वें पद्य में इसका उल्लेख किया है। २. सब अध्यातमी कियो विचार, अथ बंचायो गोम्मटसार । तामे गुनथानक परवान, कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान ॥ ३. अनायास इसही समय नगर पागरे थान, रूपचन्द्र पण्डित गुनी आयो आगमजान ।। तिहनासाहदेहरा किया, तहाँ आप तिन डेरा लिया, मब अध्यात्मी कियो विचार, ग्रन्थ बचायो गोम्मट सार ॥६३१ तामें गुन थानक परवान, कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान । जो जिय जिस गुनथानक होइ, जैसी क्रिया कर सब कोइ।६३२ भिन्न-भिन्न विवरण विस्तार, अन्तरनियत बहुरि व्यवहार । सबकी कथा सब विष कही, सुनि के संस कछु ना रही ॥६३३ तब बनारसी ओरहि भयो, स्याद्वाद परिणति परिनयो। पांडे रूपचन्द्र गुरु पास, सुन्यो प्रन्थ मन भयो हुलास ॥६३४ फिर तिस समय बरस के बीच, रूपचंद्र को आई मीच । सुन-सुन रूपचन्द्र के बैन, बनारसी भयो दिढ़ जैन ॥६३५ अर्ष कथानक
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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