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________________ ४६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पंडित रामचन्द इनका जन्म लम्ब कंचुक वंश में हुया था। इनके पिता का नाम 'मुभग' और माता का नाम 'देवकी' था। इनकी धर्मपत्नी का नाम 'मल्हणा' देवो था, जिसमे 'अभिमन्यु' नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो शीलादि सद् गुणों में अलंकृत था। कवि ने उक्त अभिमन्यु की प्रार्थना से प्राचार्य पुन्नाट संघीय जिनसेन के हरिवंश पुराणानुसार सक्षिप्त हरिवंश पुराण की रचना की है । ग्रन्थ की रचना कब और कहां पर हई इसका प्रशस्ति में कोई उल्लेख नहीं है । कारंजा के बलात्कारगण के शास्त्र भडार की यह प्रति सं०१५६० की लिखो हुई है। इसमे इतना तो सुनिश्चित है कि ग्रन्थ संवत् १५६० से पूर्ववर्ती है । संभवत: यह रचना १५ वीं शताब्दी में रची गई हो। नागदेव नागदेव मल्लूगित का पुत्र था उमने अपने कदम्ब का परिचय इस प्रकार दिया है:--चंगदेव का पूत्र हरदेव हरदेव का नागदेव, नागदेव के दो पुत्र हुए हेम और राम । ये दोनों ही वैद्य कला में अच्छे निष्णात थे। राम के प्रियंकर और प्रियंकर के मल्लगित, और मल्लूगित के नागदेव नाम का पूत्र हया। नागदेव ने अपनी लघता व्यवन करते हए अपने को अल्पज्ञ तथा छन्द अलंकार, काव्य, व्याकरणादि से नभिज प्रकट किया है। इसकी एक मात्र कृति 'मदन पराजय' है। कवि ने लिखा है कि सबसे पहले हरदेव ने मयणपराजय' नाम का एक ग्रन्थ अपभ्रंश भापा के पद्धडिया प्रोर रंगा छन्द में बनाया था। नागदेव ने उमी का अनवाद एवं अनुसरण करते हुए उस | यथावश्यक मशोधन परिवर्धनादि के माथ विविध छन्दों आदि मे समलकृत किया है। यह ग्रन्थ एक रूपक खण्ड काव्य है, जो बड़ा ही सरस और मनमोहक है, इसमें कामदेव राजा मोह, मत्री कार और अज्ञान प्रादि सेनानियों के साथ जो भावनगर में राज्य करते है। चारित्र पुर के राजा जिनराज उनक शत्र है: क्योंकि वे मुक्तिरूपी कन्या से पाणिग्रहण करना चाहते है। कामदेव ने राग-द्वप नाम के दूत द्वारा महाराज जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति कन्या से अपने विवाह के विचार का परित्याग कर अपने प्रधान सुभट दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मुझं सांप द, अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हा जाय। जिनराज ने उत्तर में काम देव से युद्ध करना ही श्रेयस्कर समझा और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया। अब रही समय की बात, ग्रन्थ कर्ता ने रचना समय नहीं दिया, जिसमे यह निश्चित करना कठिन है कि नागदेव कब हए है । ग्रन्थ की प्रति म. १५७३ की प्रतिलिपि की हुई उपलब्ध है उससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ उसके बाद का नहो हो सकता, उससे पूर्ववर्ती है। संभवतः ग्रन्थ विक्रम की १५ वीं शताब्दी में रचा गया है । १. लम्बकंचा वंशेऽसौ जातो जन-मनोहरः । गोभनाती सुभगाख्यो देवको यस्य वल्लभा ।।४ तदात्मजः कलावेदी विश्वगुण विभूषितः । रामचन्द्रामिधः श्रेष्ठी मल्हणा वनिता प्रिया ॥५ नन्मू नुन विख्यातः शील पूजाद्यलंकृतः । • अभिमन्यु महादानी तत्प्रार्थना वशादसो॥६ -जन ग्रन्थ प्रशस्ति० भा० १ पृ० ३६ २. यः शुद्ध मोमकुल-पद्म-विकाशनार्को जातोऽथिनां सुरतरु विचंगदेवः । तन्नंदनो हरि रसत्कवि नागसिंहः तस्माद्भिषग् जनपति भुं विनागदेवः ॥२ ताजा बुभी मुभिषजा विह हेम-रामी रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सित-महांबुधि-पारमाप्तः श्री मल्लुगिज्जिनपदांबुज-मत्त-भृगः ॥३ जन प्रन्थ प्रश० भा०१ प्र०७६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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