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________________ १५वी, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दो आचार्य, भट्टारक और कवि ४८५ पर जब कवि ग्रन्थ का रचना काल स. १४३६ दे रहा है तब देवकोति दूसरे हो होंगे यह विचारणीय है । प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित १६ मन्धियो में पूर्ण हम्रा है। इसको एक मात्र कृति नागोर के शास्त्रभंडार में मुरक्षित है जो सर १५५१ की लिखी हुई है । इस ग्रन्थ में जैनिया के १६ व तीर्थकर भगव न शान्तिनाथ का जीवन परिचय अकित है। भगवान शान्ति नाय पचम चक्रवर्ती थे, उन्होंने पट खण्डा का जीतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। फिर उसका परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले तपश्चरणरूप समाधिचक्र म महा दुजय मोहकर्मका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्न में अघाति कर्मका नाश कर अचल अविनाशी सिद्ध पद प्राप्त किया। कविने इम ग्रन्थ को महाकाव्य के रूप में बनाने का प्रयत्न किया है। काव्य-कला को दृष्टि में भले ही वह महाकाव्य न माना जाय। परन्तु ग्रन्थ कर्ता की दृष्टि उसे महाकाव्य बनाने की रही है । कविन लिग्या है कि शान्तिनाथ का यह चरित वीर जिनेश्वर ने गीतम को कहा, उसे ही जिन न आर पुष्पदन्त न कहा, वहीं मैन भी कहा है। ज अत्थं जिणराजदेव कहियं जं गोयमेणं सुदं, जं सत्थं जिणसेण देव रइय ज० पुष्पदंतादिही । तं प्रत्थं सुहकित्तिणा विभणियं स रूपचंद त्थियं, सणीणं दुज्जण सहाव परमं पीएहिए संगदं ।।१०वी संधि। कविने ग्रन्य निर्माण मे प्रेरक रूपचन्द्र का परिचय देत हुए कहा है कि व इक्ष्वाकूवशी कूल में (जमवालवश में) प्राशाधर हा, जो टक्कर नाम से प्रसिद्ध थ आर जिन शासन क भक्त थ इनके धनवउ 'ठक्कूर नाम का पूत्र हवा उसकी पत्नी का नाम लोनावती था, जिसका शरीर सम्पक्त्व में विभुपित था उमगे रूपचन्द्र नाम का पुत्र हआ जिसने उक्त शान्तिनाथ चरित का निमाण कराया है । कवि ने प्रत्येक मधि के अन्त में रूपचन्द्र की प्रशशा में व अाशोवादात्मक अनेक पद्य दिया है, उसका एक पद्य पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दिया जाता है: इक्ष्वाकूणां विशुद्धो जिनवरविभवाम्नाय वंशे समांश । तस्मादाशाधरीया बहुजनमहिमा जातजैसालवंशे । लीला लंकार सारोद्भव विभवगुणा सार सत्कार लुद्ध। शद्धि सिद्धार्थसारा परियगुणी रूपचन्द्रः सचन्द्रः॥ कविने अन्त में ग्रन्थ का रचना काल स.१४३६ दिया है जैसाकि उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है: पासी विक्रमभूपतेः कलियुगे शांतोत्तरे संगते । सत्यं क्रोधननामधेयविपले संवच्छरे संमते । दत्ते तत्र चतुर्दशेतु परमो त्रिशके स्वांशके। मासे फाल्गुणि पूर्व पक्षकबुधे सम्यक् तृतीयां तिथौ ॥ इससे स्पष्ट है कि कवि शुभकाति १५वी शताब्दी के विद्वान है। अन्य ग्रन्थ भंडारों में शान्तिनाथ चरित्र की इस प्रति का अन्वेपण आवश्यक है । अन्यथा एक ही प्रति पर से उसका प्रकाशन किया जाय। कवि मंगराज तृतीय कवि के पितामह का नाम 'माधव' ओर पिता का नाम 'विजयभूपाल' था, जो होयसल देशान्तर्गत होसवत्ति प्रान्त की राजधानी कलहल्लि का स्वामी था, और जिसके उद्धव कुल चूड़ामणि, शार्दूलाक उपनाम थे। यूदूवंश के महा मण्डलेश्वर चगाल नपके मत्रीवंश में उत्पन्न हुआ था। इसकी माता का नाम 'देविले' था और इसकेगरु का नाम 'चिक्क-प्रभेन्दु' था। प्रभु राज और प्रभुकुल रत्नदीप इसके उपनाम थे। इसकी छह कृतियां उपलब्ध हैंजयनप काव्य, प्रभंजन चरित, सम्यक्त्व कौमुदी, थापाल चरित, नेमि जिनेश संगीत, पाकशास्त्र (सूपशास्त्र) । जयनप काव्य-यह काव्य परिवद्धिनी षट्पदी में लिखा गया है, इसमें १६ सन्धियाँ और १०७० पद्य है। इसमें कुरु जांगल देश के राजा राजप्रभदेव के पुत्र जयनृप की जीवन कथा वर्णित है। कवि ने लिखा है कि पहले यह चरित जिनसेन ने रचा था, और दूध में शकंरा मिथण के समान संस्कृत में कनडी मिश्रित कर मैंने इसकी रचना की
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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