SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५वी, १६वों, १०वों और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि अपना नाम भी अकित कर दिया था। कवि रइ इन्हें अपना गुरु मानते थे । समय मं० १४८२ में बैशाख सुदी १० के दिन योगिनीपुर (दिल्ली) के शाहजादा मुराद के राज्य में यशः कीर्ति के उपदेश से श्रीधर की भविष्यदत्त कथा लिखवाई गई। कवि का समय मंवत् १४८२ मे १५०० तक उपलब्ध होता है । अतः कवि का समय १५वी शताब्दी सुनिश्चित है। क्योकि स० १५०० में इन्होंने हरिवंशपुराण की रचना की है, उसके बाद कितने समय और जीवित रहे यह कुछ ज्ञात नहीं होता। इनके अनेक शिष्य थे । इनके पट्टधर शिष्य मलय कीर्ति थे । रचनाएँ इनकी इस समय चार रचनाएं उपलब्ध हैं । पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण, जिनरात्रि कथा, और रवि व्रत कथा । 1 पाण्डव पुराण – इस ग्रन्थ में ३४ सन्धियाँ है जिनमें भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा के साथ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, और दुर्योधनादि कौरवों के परिचय से युक्त कौरवों में होने वाले महाभारत युद्ध में विजय, नेमिनाथ युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की तपश्चर्या तथा निर्माण प्राप्ति, नकुल, सहदेव का सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त करना ओर बलदेव का ५ वें स्वर्ग में जाने का उल्लेख किया है । कवि यशःकीर्ति विहार करते हुए नवग्राम नामक नगर में आये जो दिल्ली के निकट था । कवि ने पाण्डवपुराण की रचना इस नगर में शाह हेमराज के अनुरोध से सं० १४६६ कार्तिक शुक्ला अष्टमी बुधवार को समाप्त किया था। शाह मिराज पद मुबारिक शाह के मन्त्री यह सन् १४५० में मुवारिक शाह का मन्त्री था । कवि ने ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक हेमराज की सस्कृत पद्यों में मंगल कामना की है । इन्होंने एक चैन्यानय भी बनवाया था। उसकी प्रतिष्ठा संवत् १८६७ पूर्व हुई थी । ग्रन्थ में नारी का वर्णन परम्परागत उपमानों से अलकृत है किन्तु शारीरिक सान्दर्य का अच्छा वर्णन किया गया है- 'जाहे नियंति रइवि उक्खिज्जइ' – जिसे देखकर रति भी खीज उठती है। इतना ही नहीं किन्तु उसके सौन्दर्य में इन्द्राणी भी खिन्न हो जाती है - 'लावणं वासवपिय जूरइ' । कवि ने जहा शरीर के बाह्य सौन्दर्य का कथन किया है वहां उसके अन्तर प्रभाव की भी सूचना की है। छन्दों में पद्धडिया के अतिरिक्त आरणाल, दुवई, खंडय, हेला, जंभोटिया, मलय विलासिया, आवला, चतुष्पदी, गुदरी, वंशस्थ, गाहा, दोहा, र वस्तु छन्द का प्रयोग किया है । कवि ने २८वीं संधि के कडवा के प्रारम्भ में दोहा छन्द का प्रयोग किया है और दोह को दोधक और दोहउ नाम भी दिया है । यथा- ४८ १ १. स० १४८२ बैश १० दिो खमुदी १० दिने श्री योगिनीपुरे साहिदा मुरादगान राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये प्राचार्य श्री भावमेन देवास्तपट्टे श्री गुणीति देवनशिष्य श्री यशःकोनि उपदेशेन लिखापित | दि० जैन पत्र पती मंदिर व पवा, जैन ग्रन्थ सूत्री भा० ५ पृ० ३६३ २. सिरिअवान सहि पहा. जो मघहं वच्छलु विगयमाणु । तहो दगु वोल्हा गमाउ, नव गाव नगरि सो सई जिआउ ।। ३. विक्रमराय हो गय कानए, महि- सायर-गह- रिसि अकालए । कतिय मिमि बुह वास, हुउ परिपुष्ण, पढम गंदीसर | पाण्डवपु० प्र० ( जैन ग्रंथ प्रश० भा० २ पृ० ४० ) ४. सुरतान मुवारख तणइ रज्ज, मंतितरथिउ पिय भारकज्ज । ५. जेरण करावउ जिण चेयालउ, पुण्णहेउ चिर-रय पक्वालिउ । धय-तोरण - कलसेहि अलंकिउ, जसु गुरुति हरि जाणु वि संकिउ । - वही जैन ग्रंथ प्रश० भा०२ पृ० ३६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy