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________________ ४८० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ शिष्य परम्परा भ० पद्मनन्दी के अनेक शिष्य थे उनमें चार प्रमुख थे। शुभचन्द्र उनके पट्टधर शिष्य थे। देवेन्द्र कीर्ति ने सूरत में भट्टारक गद्दी स्थापित की थी। शिवनन्दी जिनका पूर्वनाम सूरजन साहु था। पद्मनन्दी द्वारा दीक्षित होकर शिवनन्दी नाम दिया, जो बड़े तपस्वी थे। धर्मध्यान और व्रतादि में संलग्न रहते थे। बाद में उनका स्वर्गवास हो गया था। चतुर्थ' शिष्य सकलकीर्ति थे जिन्होंने ईडर में भटारक गद्दी स्थापित की थी। यह अपने समय के सबसे प्रसिद्ध और प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। दिगम्बर मुद्रा में रहते थे। इन्होंने अनेक प्रतिष्ठाए, और अनेक ग्रन्थों वी रचना की है। इनकी शिप्य परम्परा भी पल्लवित रही है। भ. पद्मनन्दी द्वारा दीक्षित रत्नथी' नाम की प्रायिका भी थी। इस तरह पद्मनन्दी ने और उनकी शिष्य परम्परा ने जैन संस्कृति की महान् सेवा की है। भट्टारक यशःकोति यह काष्ठासघ माथुर गच्छ और पुष्कर गण के भट्टारक गूणकीति जिनका तपश्चरण से शरीर क्षीण हो गया था, लघभ्राता और पट्टधर थे । यह उस समय के सुयोग्य विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश भापा के अच्छे विद्वान और कवि थे। अपने समय के अच्छे प्रभावशाली भट्टारक थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्यो से प्रकट है: "सुतास पट्टभायरो वि प्रायमत्थ-सायरो, रिसिस गच्छणायको जयन्त सिक्ख दायको जसक्ख कित्ति सुदरो अकंपुणाय मंदिरो,।" (पास पुराण प्र०) 'तहो बंधउ जसमुणि सीस जाउ, आयरिय पणासिय दोस. राउ ।' -हरिवंश पुराण 'भब्व-कमल-सबोह पगो तह पुण-तव ताव तबियंगो। णिच्चोभासि य पवयण अंगो, वंदिधि सिरि जस कित्ति प्रसगो।" -सन्मति जिन च०प्र० यशः कीति प्रसंग (परिग्रह रहित) थे, और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे. वे यशः कीति वन्दनीय है । काष्ठासंघ की पट्टावली में उनकी अच्छी प्रशंसा की गई है। उनकी गुणकीर्ति प्रसिद्ध थी वे पुण्य मति, कामदेव के विनाशक और अनेक दिशष्यों से परिपूर्ण, निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक, जिनके चित्त में जिन चरण कमल प्रतिष्ठित थे-जिन भक्त थे और स्याद्वाद के सत्प्रेक्षक थे। इन्होंने स० १४८६ में विबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र मौर अपभ्रंश भाषा का 'सूकमाल चरित' ये दो ग्रन्थ लिखवाये थे। भट्टारक यशः कीति ने स्वयंभू कवि के खंडित जीर्ण-शीर्ण दशा में प्राप्त हरिवंशपुराण (रिटणेमि चरिउ) का ग्वालियर के समीप कुमारनगर के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए उद्धार किया था। उसमें उन्होंने १.स. १४७१ पट्टावली के प्रारम्भ में सकल कीर्ति को पमनन्दी का चतुर्थ शिष्य बतलाया है। २. तहो सीम सिद्ध गुण कित्तिणासु, तव तावें जासु शरीर खामु । तहो बंधव जस मुणि सी जाउ, मायरिय वरण सिय दोसु-राउ ॥ (हरिवंशपुराण) ३. सं०१४८६ वर्षे आषाढ वदि ७ गुरु दिने गोगवल दुर्गे राजा डूंगरेन्द्र सिंह देव विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठा संधे माथगन्वये पष्कर गणे आचार्य श्री सहस्रकीर्ति देवास्तत्प? आचार्य गुणकीतिदेवास्तच्छिप्य श्री यशःकीतिदेवास्तेन निन ज्ञानवरंगी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यरत पंचमी कथा लिखापितम् ॥" (नयामदिर धर्मपुरा दिल्ली प्रति) तथा जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ० ८३ ४. तं जसकित्ति मुरिणहि, उरियउ, णिए वि सत्तु हरिवंसच्चरित। रिण गुरु सिरि-गुगणकित्ति पसाएं किउ परिपुण्ण महो अगएँ। सरह सणेदं (१) सेठि पाएसें, कुमरिणयरि माविउ सविसेसें। गोवग्गिरिहे समीवे विसालए परिणयारहे जिणवर यालए। सावय जगहो पुरस वखारिएड, दिढ़ मिच्छत्त मोह अषमामिड। -हरिवंश पुराण प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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